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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंघकालपरूवणा ३३७ आदे०-उच्चा० उक्क० हिदि० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि। १७२. चक्खुदं० तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं० मूलोघं । ओघिद० ओधिणाणिभंगो। १७३. किरणाए धुविगाणं उक्क० हिदि० ओघं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । सादासादा०-इत्थि०-णवुस-हस्स-रदि-अरदि-सोग-णिरयगदि-देवगदि]-चदुजादि-वेउचि०-पंचसंठा-वेवि०अंगो०-पंचसंघ०-णिरयगदिदेवाणुपु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्थ-थावरादि०४-थिराथिर-सुभासुभ-दूभग-दुस्सरअण्णादे-जस-अजस० उक्क अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पुरिस०-मणुसग०-समचदु०-वजरिसभ०-मणुसाणु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० उक्क० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० देमू० । तिरिक्खग०-पंचिंदि०ओरालि०-ओरालि०अंगो-तिरिक्खाणु-पर-उस्सा--तस०४-[णीचा ] उक्क० .ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । तित्थय. उक्क० अणु० जहएणु० अंतो० । एवं पील-काऊणं । वरि तिरिक्खगदितिगं सादभंगो। प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। १७२. चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल त्रसपर्याप्त जीवोंके समान है। अचक्षदर्शनवाले जीवों में मलोके समान है और अवधिदर्शनवाले जीवोंमें अवधिशानियोंके समान है। १७३. कृष्णलेश्यामें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकगति, देवगति, चार जाति, वैक्रियिक शरीर, पाँच संस्थान, बैक्रियिक प्राङ्गोपाल, पाँच संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और अयश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुखर, आदेय, और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छास,सचतुष्क और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार नील लेश्यावाले और कापोत लेश्यावाले जीवोंके जामना ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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