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________________ ३० महाबन्ध जीव को अज्ञान, अदर्शन, सुख, दुख, राग, द्वेष और मोह आदि भावों की नरक आदि पर्यायों की उपलब्धि होती है। जिनका विपाक जीव से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध को प्राप्त पुद्गलों में होता है, उनकी पुद्गलविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के विपाकस्वरूप जीव को विविध प्रकार के शरीर, वचन और मन की उपलब्धि होती है। जिन कर्मों का विपाक भव में होता है, उनकी भवविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के विपाकस्वरूप जीव नरक आदि गतियों में अवस्थान करता है। तथा जिन कर्मों का विपाक क्षेत्र में उपलब्ध होता है, उनकी क्षेत्रविपाकी संज्ञा है। इन कर्मों के फलस्वरूप जीव पुरातन शरीर का त्याग कर नूतन शरीर को प्राप्त करने के लिए गमन करते हुए अन्तराल में पूर्व शरीर के आकार को धारण करता है। ये सब कर्म पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार के हैं। ये भेद फलदान शक्ति की मुख्यता से किये गये हैं। दान, पूजा, मन्दकषाय, साधुसेवा, दया, अलोभता, परगुणप्रशंसा, सत्समागम, अतिथिसेवा और वैयावृत्य आदि शुभ कार्यों के करने से और तदनुकूल मानस की वृत्ति होने से जिन कमों की गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृतोपम फलदान शक्ति उपलब्ध होती है, उनकी पुण्यकर्म संज्ञा है और मदिरापान, मांससेवन, परस्त्रीगमन, शिकार करना, जुआ खेलना, रात्रि भोजन करना, चुगली करना, अतिथि के प्रति आदरभाव न रखना, दुष्ट पुरुषों की संगति करना, परदोषदर्शन, कषाय की तीव्रता और लोभातिरेक आदि अशुभ कार्यों के करने से और तदनुकूल मानस वृत्ति के होने से जिन कर्मों की नीम, काँजीर, विष और हलाहल के समान फलदान शक्ति उपलब्ध होती है, उनकी पापकर्म संज्ञा है। फलदान-शक्ति घाति और अघाति के भेद से दो प्रकार की है। घातिरूप फलदान-शक्ति के चार भेद हैं-लता, दारु, अस्थि और शैल। उत्तरोत्तर शक्ति की कठोरता का ज्ञान कराने के लिए इसका यहाँ लता आदि रूप से नामकरण किया है। इस प्रकार की फलदान शक्ति से युक्त सब कर्म पापरूप ही होते हैं। किन्तु अघातिरूप फलदान शक्ति पाप और पुण्य के भेद से दो प्रकार की होती है। यह भी प्रत्येक चार-चार प्रकार की होती है। इसके नामों का निर्देश पहले किया ही है। प्रत्येक जीव में दो प्रकार के गुण होते हैं-अनुजीवी और प्रतिजीवी। जो केवल जीव में होते हैं, वे जीव के अनजीवी गण हैं और जो जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में भी उपलब्ध होते हैं, वे उसके प्रतिजीवी गुण हैं। कर्मों के घाति और अघाति इन भेदों का कारण मुख्यता ये दो प्रकार के गुण ही हैं। ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, वीर्य, दान, लाभ, भोग और उपभोग ये अनुजीवी गुण हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म इन गुणों पर प्रहार करते हैं, इसलिए इनकी घाति संज्ञा है और इनके सिवाय शेष कर्मों की अघाति संज्ञा है। ६. कर्म का कार्य कर्म का मुख्य कार्य जीव को संसार में रोक रखना है। जीव के परावर्तन का नाम ही संसार है। वह पाँच प्रकार का है- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। कर्म के निमित्त से ही जीव इन पाँच प्रकार के परावर्तनों में परिभ्रमण करता है। चौरासी लाख योनियों में पभ्रिमण करते हुए जीव की जो विविध अवस्थाएँ होती हैं, उनका मुख्य निमित्त कर्म है। इसके कार्य का निर्देश करते हुए स्वामी समन्तभद्र 'आप्तमीमांसा में' कहते हैं _ 'कामादिप्रभवश्चित्रं कर्मबन्धानुरूपतः।' ‘जीव के कामादि भावों की उत्पत्ति अपने-अपने कर्मबन्ध के अनुरूप होती है।' हम जीव के दो भेदों का उल्लेख करके यह बतला आये हैं कि मुक्त अवस्था जीव की स्वाभाविक दशा है। इस अवस्था में जीव की प्रति समय जो परिणति होती है, उसके होने में साधारण कारण काल-द्रव्य को छोड़कर अन्य निमित्त की आवश्यकता नहीं पड़ती और इसी से वह परनिरपेक्ष होने से शुद्ध कहलाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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