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________________ कर्ममीमांसा ३१ है। किन्तु संसार-अवस्था में जीव की प्रत्येक समय की परिणति निमित्त सापेक्ष होने से बदलती रहती है। कभी वह एकेन्द्रिय होता है, कभी द्वीन्द्रिय होता है, कभी त्रीन्द्रिय होता है, कभी चतुरिन्द्रिय होता है और होता है। पंचेन्द्रिय होकर भी कभी नारक होता है, कभी तिर्यंच होता है, कभी मनुष्य होता है और कभी देव होता है। कभी वह कामी होता है, कभी क्रोधी होता है, कभी मानी होता है और कभी विद्वान् या मूर्ख होता है। एक जीव बहुत प्रकार के आकार और शील, स्वभावों को धारण करता है। इस प्रकार संसार-अवस्था में जीव की प्रति समय की परिणति जुदी-जुदी होती रहती है, इसलिए इसके जुदे-जुदे निमित्त कारण माने गये हैं। ये निमित्त संस्कार रूप में आत्मा से सम्बद्ध होते रहते हैं और कालान्तर में तदनुकूल परिणति के उत्पन्न करने में सहायता प्रदान करते हैं। जीव की शुद्धता और अशुद्धता इन निमित्तों के सद्भाव और असद्भाव पर आधारित है। जब तक जीव इन निमित्तों के संचित होने में स्वयं सहायक होता है और वे उसकी प्रति समय की अवस्था के होने में सहायक होते हैं, तब तक जीव की अशुद्धता बनी रहती है और इस निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध की परम्परा का अन्त होने पर जीव शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है। जैनदर्शन में जीव की अशुद्धता के करणभूत इन्हीं निमित्तों को कर्म शब्द से पुकारा जाता है। इस विषय में कर्म की आलोचना करनेवाले यह कहते हैं कि जिस समय जिस प्रकार की बाह्य सागग्री उपलब्ध होती है, उस समय संसारी जीव की उसके अनुकूल परिणति होती है। सुन्दर सुरूप स्त्री के मिलने पर राग होता है। जुगुप्सा की सामग्री मिलने पर ग्लानि होती है। विष आदि के भक्षण करने पर मरण होता है। धन-सम्पत्ति को देखकर लोभ होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने या चुरा लेने का भाव होता है। ठोकर लगने पर दःख होता है और हार का संयोग होने पर सख; इसलिए यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही जीव की विविध प्रकार की परिणति के होने में निमित्त नहीं है; किन्त अन्य पदार्थ भी उसके होने में निमित्त हैं। किन्तु विचार करने पर यह युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंग में वैसी योग्यता के अभाव में बाह्य सामग्री कुछ भी करने में समर्थ नहीं है। उदाहरणार्थ-एक ऐसा योगी है जिसका चित्त स्फटिक मणि के समान स्वच्छ निर्मल है। यदि उसके सामने चित्त को मोहित करनेवाली स्त्री या अन्य सामग्री उपस्थित की जाती है, तो भी उसके मन में राग पैदा नहीं होता। यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसे विवक्षित वस्तु अनिष्टकर प्रतीत होती है। भले ही वह वस्तु दूसरों के लिए प्रिय है; तो भी वह व्यक्ति उस वस्तु को देखकर अप्रसन्नता ही व्यक्त करता है। इससे विदित होता है कि अन्तरंग में योग्यता के अभाव में बाह्य वस्तु का कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्म के विषय में भी यही अनुपपत्ति की जाती है, पर कर्म और बाह्य सामग्री में मौलिक अन्तर है। कर्म का विशद विवेचन हम पिछले एक परिच्छेद में कर आये हैं। उससे विदित होता है कि जिस समय आत्मा जो भाव करता है, उस समय उस भाव के संस्कारों से युक्त कर्मरज आत्मा से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं और कालान्तर में वे ही कर्म आत्मा को सुख-दुःख के वेदन कराने में सहायक होते हैं; किन्तु बाह्य सामग्री की यह स्थिति नहीं है। ___ महर्षियों ने अपने अनुभव द्वारा दो प्रकार के निमित्त कारण स्वीकार किये हैं-कर्म और नोकर्म । नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नोकर्म की मीमांसा करते हुए कहते हैं 'वस्त्र ज्ञानावरण का, प्रतीहार दर्शनावरण का, असि वेदनीय का, मद्य मोहनीय का, आहार आयु का, शरीर नामकर्म का, उच्च और नीच शरीर गोत्रकर्म तथा भण्डारी अन्तराय-कर्म का नोकर्म द्रव्यकर्म है।' आगे पुनः वे कहते हैं ‘मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का व्याघात करनेवाले वस्त्रादि पदार्थ मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का व्याघात करनेवाले संक्लेशकर पदार्थ अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म के नोकर्म द्रव्यकर्म हैं। भैंस का दही आदि पदार्थ पाँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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