SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे __८१. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तेसु सव्वपगदीणं मूलोघं । वरि पंचिंदियगहणं कादच्वं । पंचिंदियअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । ८२. पुढविका णाणावरणादि अंतराइग त्ति उक्क डिदि० कस्स० १ अण्ण बादरस्स पज्जत्तस्स सागार-जागार० उक्क. संकिलि । सेसाणं सागार-जागार तप्पाओग्ग-संकिलि०। दोआयु० उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्णद० सागारजागार० तप्पाओग्गविसुद्ध० । एवं पंचकायाणं एइंदियभावेण णेदव्वं । णवरि तेउ-चाउकायाणं मणुसायु-मणुसगः-मणुसाणु०-उच्चागोदं णत्थि । विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंके नरकायु, देवायु, वैक्रियिक छह, आहारकद्विक और तीर्थकर इन ११ प्रकृतियोंके सिवा १०९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । सो एकेन्द्रियों में इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव होता है। यह स्पष्ट ही है। यहाँ पर अन्य जितनी मार्गणाएँ कही हैं,उनमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका विचार कर उनके स्वामित्वका कथन करना चाहिए । इन सबमार्गणाओंमें उक्त १०९ प्रकृतियोंकाबन्ध होता है । मात्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय जिस प्रकार ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी योग्यताका निर्देश किया है,उसी प्रकार यहाँ भी उसका विचार कर लेना चाहिए । ८१. पञ्चेन्द्रिय और पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रियका ग्रहण करना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मूलोध प्ररूपणामें जो उत्कृष्ट स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश करते समय गतियोंकी मुख्यतासे कहा है,वहाँ नरकगतिका या तिर्यश्चगतिका जीव ऐसा न कहकर पञ्चेन्द्रिय ऐसा सामान्य निर्देश करना चाहिए। शेष कथन सब मूलोधके समान है,यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ८२. पृथिवी कायिक जीवोंमें शानावरणसे लेकर अन्तराय तक.प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला बादरपृथिवीकायिक पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामो साकार जागृत तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला उक्त जीव है। दो आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर बादर पर्याप्त पृथिवीकायिक जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । इसी प्रकार पाँच स्थावर कायिक जीवोंका एकेन्द्रिय जीवोंके समान कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-पहले एकेन्द्रियोंमें बन्ध योग्य १०९ प्रकृतियोंका निर्देश कर आये हैं । यतः पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रियोंके अवान्तर भेद हैं, अतः इनमें भी उन्हीं १०९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। मात्र अग्निकायिक और वायुकोयिक जीव इस नियमके अपवाद हैं। कारण कि उनमें मनुष्यायु, मनुष्यद्विक और उच्च गोत्रका बन्ध नहीं होता, इसलिए इन दो कायिक जीवोंमें १०५ प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है। पहले लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी योग्यताका निर्देश कर आये हैं। उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए । अर्थात् ज्ञानावरणकी ५ आदि ६६ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy