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________________ जहण-सामितपरूवा २८९ ११६. विदियाए पंचणा-छदसणा-सादावे०-बारसक० पुरिस -हस्स-रदि. भय-दुगु-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालिय०-तेजा-क०-समचदु०-ओरालि अंगो०वजरिस-वएण ४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्य-तस०४-थिरादिलक-णिमि०. उच्चागो०-पंचंत• जह• हिदि० फस्स ! अण्ण. असंजद०सम्मा० सागार-जा. सव्वविसुद्ध. जह• हिदि० वट्ट । एवं तित्थयरस्स वि । यीणगिद्धितियमिच्छत्त-अणंतागुवषि०४ जह० हिदि. कस्स.? अएण. मिच्छादि० सागार-जा. सव्वविसु० सम्मत्ताभिमु. चरिमे जह• हिदि० वट्ट । असादा-अरदि-सोगअथिर-असुभ-अजस० जह० हिदि० कस्स. ? अएण. असंजदसम्मादिहि. सागार-जा० तप्पाओग्गविसु ! इत्यि-गवंस-तिरिक्खग०-पंचसंठा-पंचसंघ०तिरिक्खाणु-उज्जो०-अप्पसत्यवि०-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा. जह० द्विदि. कस्स० १ अण्ण० मिच्छादि० सागार-जा. तप्पाओग्गविसु० जह• हिदि० वट्टमा० । दोआयु० णिरयोघं । एवं छसु पुढवीसु । वरि सत्तमाए थीणगिदि०३-मिच्छत्तअणंताणुबंधि४-तिरिक्खग-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचा० जह• हिदि० कस्स० ? होनेके प्रथम और द्वितीय समयमें असंशोके योग्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे यहां तीर्थ-. कर और दो आयुओंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी परिणामोंकी अपनी-अपनी विशेषताके साथ उक्त जीवको कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ११६. दूसरी पृथिवीमें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कवाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाल, वर्षभनाराच संहनन, वर्षचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है। अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी जो साकार जागृत है और सबसे विशुद्ध है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य तबन्धका स्वामी जानना चाहिए। स्यानगुद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है, सम्यक्त्वके अभिमुख है और अन्तिम जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है, वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर अशुम और अयश-कीर्तिप्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि जो साकार जागृत है और तत्यायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्गश्चानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्मग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितियन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर मिथ्यादृष्टि जो साकार जागृत है, तत्प्रायोग्य विशुद्ध है और जघन्य स्थितिवन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। दो आयुनोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार छहों पृथिषियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें स्त्यानगद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, तिर्यश्चगति, तिर्यशानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है। अन्यतर मिथ्यारष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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