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________________ २१४ महाबंधे दिदिबंधाहियारे बन्ध जघन्य होता है। यदि इन दोनों प्रकृतियोंके अनुभागका इस हिसाबसे विभाग किया जाता है,तो साताका चतुःस्थानिक,त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक इस क्रमसे अनुभाग उपलब्ध होता है और असाताका द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक इस क्रमसे अनुभाग उपलब्ध होता है। साताके चतुःस्थानिक अनुभागमें गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृत यह चार प्रकारका, त्रिस्थानिक अनुभागमें गुड़, खाँड़ और शर्करा यह तीन प्रकारका तथा द्विस्थानिक अनुभागमें गुड़ और खाँड़ यह दो प्रकारका अनुभाग होता है। असाताके चतुःस्थानिक अनुभागमें नीम, कांजी , विष और हलाहलरूप, त्रिस्थानिक अनुभागमें नीम, कांजी और विषरूप तथा द्विस्थानिक अनुभागमें नीम और कांजी रूप अनुभाग होता है। देखना यह है कि इनके साथ ज्ञानावरणका बन्ध होनेपर वह किस प्रकारका होता है। यह तो मानी हुई बात है कि शानावरण अप्रशस्त प्रकृति है, इसलिए साताके चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका, त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं और द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। यहां द्विस्थानबन्धक जीव शानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं; ऐसा न कहकर साताका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं, ऐसा क्यों कहा ? समाधान यह. है कि यद्यपि साताके द्विस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं,पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही करते हैं। ऐसा कोई नियम नहीं है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे न्यून भी करते हैं, इसलिए उस प्रकारका विधान नहीं किया। इस प्रकार असाताके द्विस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणका जघन्य स्थितिबन्ध करते हैं। त्रिस्थानबन्धक जीव अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं और चतुःस्थानबन्धक जीव असाता वेदनीयका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करते हैं। इस प्रकार कुल जीव छह प्रकारके होते हैं--साताके चतुःस्थान बन्धक जीव, त्रिस्थानबन्धक जीव और द्विस्थानबन्धक जीव । तथा असाताके द्विस्थानबन्धक जीव, त्रिस्थानबन्धक जीव और चतुःस्थानबन्धक जीव । इनमेंसे प्रत्येकमें अपनेअपने योग्य ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे थोड़े हैं। दूसरी स्थितिका बन्ध करनेवाले विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेष अधिक विशेष अधिक हैं और इससे आगे इतने ही स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेष हीन विशेष हीन हैं। आशय यह है कि जो सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव हैं, उनमेंसे कुछ जीव शानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध करते हैं। इनसे कुछ अधिक जीव झानावरणकी इससे आगेकी स्थितिका बन्ध करते हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थिति विकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेष अधिक विशेष अधिक और आगे इतने ही स्थितिविकल्पोंके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेषहीन जीव शानावरणकी स्थितिका बन्ध करते हैं। उदाहरणार्थ-सातावेदनीयके चतुःस्थानयन्धक जीव ५२ हैं और ये ज्ञानावरणकी ५, ६, ७, ८ और ९ समयवाली स्थितिका बन्ध करते हैं,तो पूर्वोक्त हिसाबसे ५ समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले ८ जीव होते हैं, ६ समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले १२ जीव होते हैं, ७ समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले १६ जीव होते हैं, ८ समयवाली स्थितिका करनेवाले १०जीव होते हैं और ह समयवाली स्थितिका बन्ध करनेवाले ६जीव होते हैं। इस उदाहरणसे स्पष्ट शात होता है कि पहले विशेष अधिक विशेष अधिक और अनन्तर विशेष हीन विशेष हीन जीव स्थितिका बन्ध करते हैं। इससे यवमध्यकी रचना हो जाती है, क्योंकि मध्यमें जीव सर्वाधिक हैं और दोनों ओर विशेषहीन विशेषहीन हैं। इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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