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________________ ANAVRAvv जीवसमुदाहारो २१३ णीयस्स अजहएणमणुकस्सयं हिदि बंधंति । चदुहाणबंधगा जीवा असादस्स चेव उक्कस्सिया हिदि बंधति । ४२५. एदेसि परूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा य । अणंतरोवणिधाए सादस्स चदुट्ठाण० तिहाण. असादस्स विहाण. तिहाणबंधगा णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदीए जीवा थोवा । विदियाए डिदीए जीवा विसेसाधिया। तदियाए हिदीए जीवा विसेसाधिया । एवं विसेसाधिया२ याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं विसेसहीणा। एवं विसेसहीणा विसेसहीणा याव सागरोवमसदपुधत्तं । सादस्स विहाणबंधगा जीवा असादस्स चदुहाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स जहरिणयाए हिदीए जीवा थोवा। विदियाए हिदीए जीवा विसेसाधिया । तदियाए हिदीए जीवा विसंसाधिया। एवं विसेसाधिया विसेसाधिया याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा २ याव सादस्स असादस्स य उकस्सिया हिदि ति । जीव ज्ञानावरण कर्मकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं । चतुःस्थानबन्धक जीव असाता वेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते हैं। ४२५. इनकी प्ररूपणा करनेपर ये दो अनुयोगद्वार होते हैं---अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा साताके चतुःस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धक तथा असाताके द्विस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धकजितने जीव हैं.उनमेंसे ज्ञानावरण कर्मकी अपने-अपने योग्य जघन्य स्थितिमें स्थित अर्थात् अपने-अपने योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे दूसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं । इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेष अधिक विशेष अधिक जीव हैं। तथा इससे आगे प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन जीव हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन विशेषहीन जीव हैं। तथा के द्विस्थानबन्धक और असाताके चतु:स्थानबन्धक जितने जीव है,उनमेंसेशानावरण कर्मकी अपने-अपने योग्य जघन्य स्थितिमें स्थित जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे दूसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। इनसे तीसरी स्थितिमें स्थित जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार सौ सागरपृथक्त्व प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेष अधिक विशेष अधिक जीव हैं। तथा इससे आगे प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर विशेष हीन विशेषहीन जीव हैं। इस प्रकार साता और असाताको उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमें विशेषहीन विशेषहीन जीव हैं। विशेषार्थ यहां जीवोंके आलम्बनसे स्थितिबन्धका विचार किया गया है। साता और साता प्रतिपक्ष प्रकृतियां हैं। इसलिए जो साताका बन्ध करते हैं, वे असाताका बन्धनहीं करते और जो असाताका बन्ध करते हैं, वे साताका नहीं करते। इस हिसाबसे जीव दो प्रकारके होते हैं-सातबन्धक और असातबन्धक। साता प्रशस्त प्रकृति है और असाता अप्रशस्त । इसलिए साताके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध होनेपर स्थितिबन्ध जघन्य होता है और जघन्य अनुभागबन्ध होते समय स्थितिबन्ध उत्कृष्ट होता है। तथा असाताके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके समय स्थितिबन्ध उत्कृष्ट होता है और जघन्य अनुभागबन्धके समय स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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