________________
२१५
जीवसमुदाहारो ४२६. परंपरोवणिधाए सादस्स चदुहाणबंधगा जीवा तिहाणबंधगा जीवा असादस्स विडाणबंधगा जीवा तिहाणबंधगा जीवा पाणावरणीयस्स जहणियाए हिदीए जीवेहितो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवडिदा । एवं दुगुणवडिदा दुगुणवडिदा याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणार याव सागरोवमसदपुधत्तं । एयजीवदुगुणवट्टिहाणिहाणंतराणि असंखेज्जाणि पलिदोवमस्स वग्गमूलाणि । णाणाजीवदुगुणवडिहाणिहाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो। णाणाजीवदुगुणवडिहाणिहाणंतराणि थोवाणि । एपजीवदुगुणवडिहाणिहाणंतरं असंखेज्जगुणं ।
४२७. सादस्स विडाणबंधगा जीवा असादस्स चदुहाणबंधगा जीवा णाणावरणीयस्स जहएिणयाए हिदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण' दुगुणवडिदा । [एवं दुगुणवडिदा ] दुगुणवडिदा याव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव सादस्स असादस्स य उक्कस्सिया हिदि त्ति । एयजीवदुगुणवडिहाणि हाणंतरं असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणाजीवदुगुणवडिहाणिहाणतंराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो । णाणाजीवदुगुणवडि-हाणि-हाणंतसाताके त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक बन्धकी अपेक्षा तथा असाताके द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक बन्धकी अपेक्षा कथन करना चाहिए।
४२६. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा साता वेदनीयके जितने चतुःस्थान बन्धक और त्रिस्थानबन्धक जीव हैं । तथा असातावेदनीयके जितने द्विस्थानबन्धक और त्रिस्थानबन्धक जीव हैं,उनमेंसे शानावरण कर्मकी जघन्य स्थितिमें स्थित जितने जीव हैं,उनसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे दूने हो जाते हैं। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्वके प्राप्त होने तक वे दूने-दूने होते जाते हैं। इससे आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे आधे रह जाते हैं । इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्वके प्राप्त होने तक वे उत्तरोत्तर आधे-आधे रहते जाते हैं। यहाँएकजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके असं. ख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं और नानाजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । नानाजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं और इनसे एकजीव द्विगुणवृद्धिद्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है।
४२७. सातावेदनीयके जितने द्विस्थानबन्धक जीव हैं और असातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव हैं, उनमेंसे शानावरणकी अपने योग्य जघन्य स्थितिके बन्धक जितने जीव हैं, उनसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिस्थान जाकर वे दूने हो जाते हैं। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्व प्राप्त होने तक वे दूने-दूने होते जाते हैं। इससे आगे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वे आधे रह जाते हैं और इस प्रकार साता और असाताकी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे आधे-आधे होते जाते हैं। यहाँ एकजीवद्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानि स्थानान्तर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होते हैं और नानाजीव द्विगुणवृद्धि-द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यात भागप्रमाण होते हैं । इस प्रकार नाना
१. मूलप्रती गंतूण दुगुणवडिदा हाणि दुगुण--इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org