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________________ ४३६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे २६५. सासणे तिषिण आयु० जह• अज पत्थि अंतरं । सेसाणं सव्वपग० जह० णत्थि अंतर । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० ।। २६६. सम्मामि० धुविगाणं जह• अज० एत्थि अंतरं। सादा०-हस्स-रदिथिर-सुभ-जस० जह• पत्थि अंतर । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तप्पडिपक्खाणं जह• हिदि. जहएणु० अंतो० । अज० जह• एग०, उक्क० अंतो० । मिच्छादिट्टी० मदि०भंगो। २६७. सएणीसु पंचणा०-छदसणा-सादास्ग०-चदुसंज-सत्तणोक०-पंचिंदि०. तेजा-क०-समचदु०-वरण०४-अगु०४-पसत्थवि०--तस०४--थिराथिर-सुभासुभ-सुभगसुस्सर-आदे०-जस०-अजस-णिमि०-तित्थय०-पंचंत० जह• हिदि० णस्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४ जह हिदि० णत्थि अंतर । अज. जह• अंतो०, उक्क वेछावहि साग० देसू० । एवं इत्थिवे० जह• हिदि० रणत्थि अंतर। अज० अोघं । अट्ठकसा. जह• पत्थि अंतर । अज. जह• अंतो०, उक्क० पुव्बकोडी देसू० । णवुस-पंचसंठा-पंचसंघ २९५. सासादनसम्यक्त्वमें तीन आयुओंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है।। २९६. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मिथ्यादृष्टियों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। विशेषार्भ-यहाँ स्वामित्वका विचारकर अन्तरकाल ले जाना चाहिए। २९७. संज्ञी जीवोंमें पाँच झानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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