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________________ जहएणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूषणा ४३५ २६४. उवसम पढमदंडो ओधिभंगो। असादा०-अरदि-सोग-मणुसगदिपंचगस्स० अथिर-असुभ-अजस० जह• जह• उक्क. अंतो० । अज जह० एग०, उक्क० अंतो० । अहक जहर० [अजह०] जह० उक्क० अंतो० । देवगदि०४ आहार०२-तित्थय० जह• पत्थि अंतरं। अज. जह. उक्क० अंतो० । णवरि तित्थय० अज जह० एग०, उक्क० अंतो० । अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होनेसे यह उक्त प्रमाण कहा है । अथवा अप्रमत्तके इनका जघन्य स्थितिबन्ध मानने पर जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ जघन्य अन्तर प्रमत्त गुणस्थानसे अन्तरित करके ले आना चाहिए और उत्कृष्ट अन्तर लानेके लिए कुछ कम छयासठ सागर कालके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध करा कर ले आना चाहिए। इनके अजघन्य स्थितिबन्धकाजघन्य अन्तर एकसमय तक जघन्य स्थितिबन्ध करानेसे उपलब्ध होता है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर लाते समय उपशम श्रेणो पर पारोहण करा कर और उतार कर देवगति चतुष्कके बन्ध होने के एक समय पूर्व मरण करा कर तेतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न करानेसे प्राप्त होता है, इसलिए यह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार आगे भी अन्तरकालका विचार कर लेना चाहिये। २९४. उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में प्रथम दण्डकका भङ्ग अवधिशामके समान है । असातावेदनीय, अरति, शोक, मनुष्यगतिपञ्चक, तथा अस्थिर, अशुभ और अयशाकीर्तिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ देवगतिचतुष्क आदि सात प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध उपशम श्रेणीमें होता है, इसलिए उसके अन्तरकालका निषेध किया है और उपशमश्रेणीपर आरोहण कर उतरनेमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि अपूर्वकरणके विवक्षित भागमें इनकी बन्धव्युच्छित्ति होनेपर उपशम श्रेणीसे उतरकर पुनः उसी भागको प्राप्त होनेतक इन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । आहारकद्विकका अन्तरकाल प्रमत्तगुणस्थानमें लाकर और पुनः अप्रमत्त गुणस्थामें ले जानेसे भी प्राप्त किया जा सकता है। मात्र जो जीव अपूर्वकरणमें एक समयके लिए तीर्थङ्कर प्रकृतिका प्रबन्धक होकर और दूसरे समयमें मरकर देव होकर पुनः उसको बन्ध करने लगता है, उसके तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। १. भूलप्रतौ जह० अंतो० जह० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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