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________________ ४३४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे 1 धुविगाहि सह कादव्वा । धुविगाणं अथवा जह० जह० अंतो०, उक्क० छाबडि० देसू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सेसाणं आयु० - तित्थयरवज्जाणं सव्वपगदी जह० डिदि ० [जह०] अंतो०, उक्क० छावहि० देसू० । अज० श्रधिभंगो । तित्थय० जह० ' जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । अज० जह० एग०, उक्क० तो ० । है । तीर्थङ्कर प्रकृतिकी ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ गणना करनी चाहिये । अथवा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छ्यासठ सागर है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तं है। आयु और तीर्थकर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है। तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - वेदकसम्यक्त्वमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल दो प्रकारसे बतलाया है । सर्वप्रथम कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि विवक्षित प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी होता है; इस दृष्टिको ध्यान में रखकर अन्तरकाल कहा है। इस अपेक्षासे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और दूसरे दण्डकमें कही गई साता आदि प्रकृतियोंके जघन्य स्थिति बन्धका अन्तर उपलब्ध नहीं होता है । वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर होने से यहाँ साता श्रादिके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागर कहा है । प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध कराने से यह अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इसी प्रकार आठ कषायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्राप्त करना चाहिए । संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि होने से यहाँ आठ कषयोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। मनुष्यगतिपञ्चकका जघन्य स्थितिबन्ध सर्वविशुद्ध देव और नारकीके होता है, इसलिए यहाँ इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योंकि ये परिणाम अन्तर्मुहूर्त के बाद पुनः हो सकते हैं और यदि ये परिणाम वेदक सम्यक्त्वके कालके प्रारम्भमें और अन्तमें होते हैं तो इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छ्यासठ सागर उपलब्ध होने से वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, इसलिए जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और जो वेदक सम्यग्दृष्टि देव मर कर मनुष्य होता है और एक पूर्वकोटिप्रमाण आयुको बिताकर पुनः देव होता है, उसके न पाँच प्रकृतियोंके श्रजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि देखा जाता है, इस लिए वह उक्त प्रमाण कहा है। देवगति चतुष्कका जघन्य स्थितिबन्ध जब कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिके होता है, तब इसके अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होनेसे उसका निषेध किया है । और देवोंमें इन चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, अतएव यहाँ अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य १. जह० एग० श्रंतो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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