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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध कालपरूवणा उक्क० एक्क्त्तीसं• । सेसा उक० द्विदि० अ० द्विदि० जह० एग०, उक्क० एवं सव्वदेवाणं अपष्पणो हिदी पादव्वा । १४६. इंदियाणुवादे एइंदिए धुविगाणं उक्क० ओघं । अ० जह० तो ०, उक्क॰ असंखेज्जा लोगा । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० - लीचा उक्क० अ० श्रघं । सेसा उक० अ० जह० एग०, उक्क० अंतो० । बादरे धुविगाणं उक्क० श्रोधं । ु ० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । बादरपज्जत्ते संखेज्जाणि वस्ससह - स्पाणि । तिरिक्खगदि - तिरिक्खाणु० णीचा ० उक्क ओघं । अ० जह० एग० उक्क० कम्मदी । बादरपज्जत्ते संखेन्नाणि वस्ससहस्साथि । सेसाणं एइंदियोघं । बन्धका काल श्रोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सब देवोंके अपनी-अपनी स्थितिको ध्यान में रखकर काल जानना चाहिए । विशेषार्थ - प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण श्रादि ५९ प्रकृतियोंका देवोंके मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों अवस्थाओं में सतत बन्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल सामान्य देवोंकी अपेक्षा तेतीस सागर कहा है । तथा दूसरे दण्डकमें कही गई स्त्यानगृद्धि आदि ८ प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता और देवोंके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। नौ श्रनुदिश और पाँच अनुत्तरवासी देवोंके दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन्ध ही नहीं होता। हां, प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका बन्ध अवश्य होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल जिसकी जितनी स्थिति है, उतना जानना चाहिए। पर भवनवासी देवोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके शेष देवोंके प्रथम और द्वितीय दण्डकमें कही गई सब प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए . इन सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल जहाँ जो उत्कृष्ट स्थिति हो, उतना जानना चाहिए | अब रह गया तीसरा दण्डक सो इसमें कही गई प्रकृतियोंमेंसे जहाँ जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका सर्वत्र जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है; क्योंकि ये सब प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ है । १४९. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। बादर एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्ध वाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में तिर्यञ्चत्रिक प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल सामान्य एकेन्द्रियोंके समान है । કર Jain Education International For Private & Personal Use Only ३२१ 10] www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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