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________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे समचदु०-परघादुस्सा०-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा० उक्क० ओघं । अणु० जह० एम०, उक्क० तिषिणपलिदो० सादि० । णवरि मणुसिणीसु पुरिसवेद० देवगदि०४-समचदु०-पसत्थवि०-सुभग-सुस्सर-आदे०-उच्चा उक्क० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क तिएिणपलिदो० देसू० । तित्थय. उक्क० अोघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पुचकोडी देसू०। आहार०-आहार अंगो० अोघं। मणुसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। १४८. देवगदीए देवेसु पंचणा-छदंसणा०-बारसक०-पुरिस०-भय-दुगु मणुसग०-पचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क---समचदु०--ओरालि० अंगो०-वजरिसभावएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमिण-तिस्थय०-उच्चा-प'चंत० उक्क० ओघं । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० । थीणगिद्धि०३-मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४ उक्क० हिदि० ओघ । अणु० जह० एम०, पुरुषवेद, देवगति चतुष्क, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्छास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में पुरुषवेद, देवगति चतुष्क, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अोधके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण है। तथा आहारक शरीर और आहारक श्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। मनुष्य अपर्यातकों में अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मनुष्यों में जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य होते हैं, वे मरकर तीन पल्यको आयुवाले मनष्यों में भी उत्पन्न होते हैं। इससे इनमें पुरुषवेद श्रादि ११ प्रक्रतियोंके अनकट बन्धका उत्कृष्ट काल तिर्यञ्चोंके समान तीन पल्य न कहकर साधिक तीन पल्य कहा है । पर ऐसा जीव मरकर मनुष्यनियोंमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिए. इनमें इन पुरुषवेद आदि ११ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । यद्यपि ओघसे तीर्थकर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, पर नरकगतिमें और यहां यह काल एक समय कहनेका कारण अन्य है। शेष कथन सुगम है। १४८. देवगतिमें देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूवा, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, वसचतुष्क, सुभग. सस्वर. आटेय. निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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