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________________ उक्कस्सडिदिबंधकालपरूवणा १४६. पंचिंदियतिरिक्ख०३ धुविगाणं उक० हिदि० ओघं । अणु हिदि. जह एग०, उक० तिषिणपलिदो० पुबकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । पुरिस०देवगदि०-वेरवि०-समचदु०-वेउवि अंगो-देवाणुल-पसत्थवि-सुभग-सुस्सर-आदेउच्चा० उक. हिदि. ओघं । अणु० जह• एग०, उक्क० तिगिणपलिदो० । जोणिणीसु देसणं । [ पंचिंदिय-पर-उस्सा०-तस०४ तिरिक्खोघं । सेसाणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्त० सन्चपगदीणं उक्क० अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। १४७. मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। वरि परिस०-देवगदि०४-पंचिंदिय पर्यायमें तीन पल्य कालतक निरन्तर पुरुषवेद आदि ग्यारह प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध नियमसे होता रहता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है। तिर्थश्चगतित्रिकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोध प्ररूपणामें जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं, उसी प्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यहाँ उन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान कहा है। पञ्चेन्द्रियजाति आदि सात प्रकृतियोंका उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाला तिर्यञ्च साधिक तीन पल्यतक निरन्तर बन्ध करता है. इसलिए इसके अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १४६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें ध्रुववन्ध प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिपन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। किन्तु योनिनी तिर्यञ्चों में इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इनके इतने कालतक ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। पुरुषवेद आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धके उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण जिस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके कर आये हैं,उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिए । मात्र सम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर योनिनी तिर्यञ्चोंमें नहों उत्पन्न होता, इसलिए इसमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है। १४७. मनुष्यत्रिको पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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