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________________ जहराणकालपरूवरणा ११५ कम्माणं अोधिभंगो । उवसम-सम्मामि० सत्तएणं क० उक्क० अणु० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० । सासण. सत्तएणं क० मणुसअपज्जत्तभंगो । आयु० उक्क० जह० एग०, उक० संखेजसम० । अणु० देवोघं । एवं उक्कस्सकालं समत्तं । १६५. जहएणगे पगदं । दुविधो णिद्द सो—ोघेण आसेण य । तत्थ अोघेण सत्तएणं क. जह० हिदिवंध० जह० उक्क० अंतो० । अज० सव्वद्धा । आयु० जह० अज. सव्वद्धा । एवं ओघभंगो णवुस०-कोधादि०४-अचक्खु०-भवसि०आहारग त्ति। १६६. प्रादेसेण णेरइएमु सनगणं क० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे०। अज० सव्वद्धा। आयु० उक्कस्सभंगो। एवं पढमाए देव-भवणवाणवें० । विदियादि याव सत्तमा त्ति उक्करसभंगो। सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवों में काल जानना चाहिए। संयतासंयत जीवों में आठों कर्मोंका भङ्ग अवधिशानियों के समान है। उपशम सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें सात कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सासादन सम्यग्दृष्टियों में सात कर्मोंका भङ्ग मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सामान्य देवोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट काल समाप्त हुआ। १९५. अब जघन्य कालका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सात कर्मोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है तथा अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। श्रायु कर्मकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्पदा है। इसी प्रकार अोधके समान नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ-सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १९६. प्रादेशसे नारकियों में सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका सब काल है। आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक सब कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-यदि एक या नाना असंशी जीव मरकर नरकमें एक साथ उत्पन्न होते हैं और वहां तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिका एक समय बन्ध करते हैं, तो सात कर्मोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है और पावलिके असंख्यात भागप्रमाण कालतक उत्पन्न होते रहते हैं, तो इतना काल उपलब्ध होता है। यही कारण है कि नरकमें सात कौके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। प्रथम पृथिवी, सामान्य देष, भवनवासी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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