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________________ ११६ महाबंधे ठिदिबंधाहियारे १६७. तिरिक्खेसु अट्ठएणं क. जह० अज० सव्वद्धा। एवं सव्वएइंदियबादरपुढवि०-ग्राउ-तेउ०-वाउ०अपज्ज० तेसिं च सव्वसुहुम० सव्ववणप्फदिणिगोद०-बादरवण पत्तेय अपनत्ता० ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज०किएण-णील०-काउ०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असएिण-अणाहारग त्ति । पंचिंदियतिरिक्ख०४ अट्ठएणं क० जह० अज० उकस्सभंगो । १६८. मणुसेसु सत्तएणं क. अोघं । आयु० जह० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखे० । अज० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे० । एवं मणुसपज्जत्त-मणसिणीसु । गवरि आयु० उकस्सभंगो। मणसअपज्ज. सत्तएणं क० जह० जह० एग०, उक० आवलियाए असंखे०। अज० जह. खुद्दाभवग्गहणं विसमयूणं, उक्क० पलिदो० असंखे० । आयु० उक्कस्सभंगो।। व्यन्तर देवोंमें यह काल इसी प्रकार उपलब्ध होता है, इसलिए इन मार्गणाओं में यह काल उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।। १९७. तिर्यञ्चोंमें आठों कर्मोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त तथा इन्हींके सब सूक्ष्म, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च चतुष्कमें आठों कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल उत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध एकेन्द्रियोंके होता है और अजघन्य स्थितिका बन्ध यथासम्भव सबके होता है तथा आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका यथासम्भव सबके होता है और अजघन्य स्थितिका बन्ध भी सबके होता है, इसलिये यहां इनका सब काल बन जाता है। यहां गिनाई गई अन्य मार्गणाओं में भी इसी प्रकार सब काल घटित कर लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनाहारकोंके आयुकर्मकी स्थितिके बन्धका काल नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता । शेष कथन सुगम है। १९८. मनुष्यों में सात कर्मोकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका काल ओघके समान है। आयुकर्मकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें श्रायुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सात कर्मोकी जघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलिके असंल्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य काल दो समय कम मुद्रक भषग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके भसंस्थातवें भागप्रमाण है। तथा आयुकर्मका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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