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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे व्वियका. आयु० देवोघं । आहार-आहारमि० आयु० जह० हिदिवं० पलिदोवमपुधत्तं । अंतोमु० आबाधा । कम्महिदी कम्मः । एवं परिहार०-संजदासंजदा० त्ति । विभंगे आयु. ओघं । तेउलेस्सिया० सोधम्मभंगो । पम्माए सणक्कुमारभंगो। वेदगे आयु० श्रोधिभंगो । सासणे देवोघं ।। ३३. तिरिक्खेसु सत्तएणं कम्माणं जह० हिदि० सागरोवमस्स तिएिणसत्त भागा सत्तसत्त भागा बेसत्त भागा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबा० । आबाधू० कम्महिदी क० । आयु० अोघं । एवं तिरिक्खभंगो सव्वएईदिय-सव्वपंचकाय-ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंजद०-किरणपील-काउ०-अब्भसि-मिच्छादि-असणिण-अणाहारग ति । वरि कम्मइ०अणाहार० आयुगं णत्थि । होता है। अन्तमुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है । वैकि यिक काययोगमें आयुकर्मका विचार सामान्य देवोंके समान है। श्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पल्योपमपृथक्त्वप्रमाण होता है। अन्तमुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होते हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । विभंगशानमें आयुकर्मका कथन ओघके समान है। पीतलेश्यावालोंके आयुकमंका कथन सौधर्मकल्पके समान है। पद्मलेश्यावालोंके आयुकर्मका कथन सानत्कुमार कल्पके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंके आयुकर्मका कथन अवधिज्ञानियोंके समान है और सासादनमें श्रायुकर्मका कथन सामान्य देवोंके समान है। विशेषार्थ-संशी पंचेन्द्रियपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोडाकोडीसे कम नहीं होता । इसी नियम कोध्यानमें रखकर इन दूसरी पृथिवी आदि मार्गणाओं में सात कर्मीका स्थितिबन्ध कहा गया है। यद्यपि दसरी प्रथिवी आदिक मार्गणाओंमें निवृर्त्यपर्याप्त अवस्था भी होती है,पर यहां संज्ञी जीव ही मर कर उत्पन्न होता है,इसलिये यहां किसी भी हालतमें इससे कम स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है। आयुकर्मके स्थितिबन्धमें जहां जो विशेषता कही है, वह जानकर समझ लेना चाहिये। ३३. तिथंचों में सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका असंख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग, सातबटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है। अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। आयकर्मका कथन अोके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब पांचों कायवाले, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंशी और अनाहारक जीवोंके तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके आयुकर्मका बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ-तिर्यंचगतिमें जघन्य स्थितिबन्धके विचारमें एकेन्द्रियोंकी मुख्यता है। उनके जो जघन्य स्थितिबन्ध होता है, वही तिर्यंचगतिमें समझना चाहिये । यहां अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं वे सब एकेन्द्रिय जीवोंके सम्भव हैं, इसलिये उन मार्गणाओं में भी यही व्यवस्था जाननी चाहिये। इन सब मार्गणाओंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध शुल्लकभवप्रमाण होता है, इसलिये आयुकर्मका कथन ओघके समान कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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