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________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा पुढवीए देवा-भवण-वाणवें । एवं चेव सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्जत्त-पंचिंदियअपज्जत्ता० । णवरि आयु० अोघं ? ३२. विदियाए याव सत्तमा ति सत्तएणं कम्माणं जह• हिदिवं. अंतोकोडाकोडी। अंतोमुहुत्तं आबाधा । आवाधृ० कम्महिदिकम्म० । आयु० णिरयोघं । एवं जोदिसिय याव सव्वह ति वेउव्वियका-वेउव्वियमि०-आहार-आहारमि-विभंगपरिहार-संजदासंजद-तेउले-पम्मले-वेदगस०-सासण-सम्मामि० । वरि एदेसु आयु. विसेसो । जोदिसिय-सोधम्मीसाण आयु० जह• हिदि० अंतो । सणक्कुमार-माहिंद० मुहुत्तपुधत्तं । बह्म-बह्मत्तर-लंतव-काविह. दिवसपुधत्तं । मुक्कमहासुक्क-सदर-सहस्सार• पक्रवपुधत्तं । आणद-पाणद-आरण-अच्चुद० मासपुधत्तं । उवरि याव सव्वह त्ति वासपुधत्तं । अंतोमु. आबा । कम्महिदी कम्म० । वेउचाहिये । तथा इसी प्रकार सव पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये। किंतु इतनी विशेषता है कि इनके आयुकर्मका कथन ओघके समान है। विशेषार्थ--असंशो जीव मर कर नरकमें उत्पन्न हो सकता है और ऐसे जीवके अपर्याप्त अवस्थामें असंज्ञीके योग्य बन्ध होता रहता है । इसीसे नरकमें सात कौंका जघन्य स्थितिबन्ध उक्त प्रमाण कहा है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त गर्भजकी जघन्य आय अन्तर्महत प्रमाण होनेसे नरकमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। असंशी जीव मर कर प्रथम नरक, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न हो सकता है। इसीसे इन मार्गणाओंमें सामान्य नारकियोंके समान जघन्य स्थितिबन्ध कहा है। सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त इन मार्गणाओंमें यद्यपि एकेन्द्रिय जीव भी मर कर उत्पन्न होता है,पर इन मार्गणाओं में उत्पन्न होनेके बाद अपर्याप्त अवस्था में सात कोका जघन्य स्थितिबन्ध असंज्ञीके होनेवाले स्थितिबन्धसे कम नहीं होता ऐसा नियम है। यही कारण है कि इन मार्गणाओं में भी सात कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध उक्त प्रमाण कहा है। इन मार्गणाओंमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुद्रकभव स्थितिप्रमाण होनेसे आयुकर्मको प्ररूपणा अोधके समान कही है। शेष कथन सुगम है। ३२. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सातों कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोडीकोडीसागरप्रमाण होता है, अन्तमुहर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। श्रायुकर्मका कथन सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके तथा वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यगदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इन मार्गणाओं में आयुकर्मके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है-ज्योतिषी देव तथा सौधर्म और ऐशान कल्पमें आयुकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तमुहूर्तप्रमाण होता है । सानत्कुमार और माहेन्द्र में मुहूर्तपृथक्त्वप्रमाण होता है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर और लान्तव, कापिष्टमें दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता है। शुक्र,महाशुक्र और शतार,सहस्रारमें पक्षपृथक्त्वप्रमाण होता है । आनत, प्राणत और पारण.अच्युतमें मासप्रथक्त्वप्रमाण होता है। आगे सर्वार्थसिद्धि तक वर्षपृथक्त्वप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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