SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रद्धाच्छेदपरूवणा २७ ३४. बीइंदि०-तीइंदिय-चरिंदि० तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तएणं क. जह• हिदिवं० सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपएणासाए सागरोवमसदस्स तिषिणसत्त भागा सत्तसत्त भागा बेसत्त भागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणियं । अंतोमु० आबाधा । आवाधू० कम्महिदी कम्म० । आयुगस्स अोघं । तसपज्जत्त० बीइंदियभंगो। ३५. इत्थि०-णवुस. णाणावर०-दसणावर०-अंतराइ० जह० हिदिबं० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अंतोमु० आवा० । आवाधू० कम्महिदिकः । वेदणीय-णामा-गोदाणं जह• हिदिवं० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। अंतो० आबा० । आवाधू० कम्महिदी क० । मोहणी. जह• हिदिव० संखेज्जाणि वस्ससदाणि । अंतो० आबा० । आवाधृ० कम्महिदी क। आयु० अोघं । पुरिसवे० छगणं कम्माणं जह० हिदिवं० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अंतो. आबा । आबाधृ० कम्महिदी कम्म० । मोहणीय० सोलस वासाणि । अंतो. आबाधा । आबाधू० कम्मटिदी क० । आयु० ओघं । अधवा णाणावर०-दसणावर०-अंतराइगाणं जह• हिदिवं० संखेज्जाणि वस्ससदाणि । अंतो. आवा० । आबाधू० कम्महिदी क० । ३५. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके तथा इन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके सात कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध क्रमसे पच्चीस सागरका, पचास सागरका और सौ सागरका, पल्यका संख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। आयुकर्मका विचार ओघके समान है। प्रसपर्याप्तका विचार द्वीन्द्रियोंके समान है। ३५. स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका असंख्याता भागप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्त आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। आयुकर्मका विचार श्रोधके समान है। पुरुषवेदवाले जोवोंके छः कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधा होती है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। मोहनीय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह वर्षप्रमाण होता है, अन्तमुहर्तप्रमाण आबाधा होती है, और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। प्रायुकर्मका विवार ओघके समान है। अथवा, शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात सौ वर्षप्रमाण होता है, अन्तर्मुहर्तप्रमाण आबाधा होती है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक होता है। विशेषार्थ-तीन वेदवाले जीवोंके सात कर्मोंका यह जघन्य स्थिति बन्ध क्षपक श्रेणीमें प्राप्त होता है और आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध मिथ्यात्व गुणस्थानमें प्राप्त होता है, क्योंकि श्रोधके समान क्षुल्लक भवप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध वहींपर सम्भव है। अन्यत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy