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________________ ६८ : महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे क० उक्क बं० जह• अंतो०, उक्क० अट्ठारस साग० सादि । अणुक्क० ओघं । आयु० देवभंगो तिषणं पि। ११० खइगस० सत्तएणं क० उक्क जह• अंतो, उक्क० तेत्तीस साग सादि। अणु० ओघ । आयु० उक्क पत्थि अंतरं । [अणुक्क पगदिअंतरं। 7 वेदग० सत्तएणं क. उक्क० अणु० पत्थि अंतरं। आयु० उक्क० जह० पलिदो० सादिरे०, उक्क० छावहिसाग० देसू० । अणु० पगदिअंतरं । उवसमस० सत्तएणं क० अोधिभंगो। सासणस० सम्मामि० अट्टएणं का सत्तएणं क. उक्क० अणु० पत्थि अंतरं । लेश्यामें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मका भंग तीनों ही लेश्याओं में सामान्य देवोंके समान है। विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्याका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। इसीसे इन लेश्याओंमें सात कौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है । मात्र नील और कापोत लेश्यामें यह कुछ कम उपलब्ध होता है। इन लेश्याओंका इतना बड़ा काल नरकमें ही उपलब्ध होता है और नरकमें आयुकर्मका बन्ध अधिकसे अधिक छह माह काल शेष रहनेपर होता है । इसीसे इन लेश्याओंमें आयुकर्मके अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम छह माह कहा है। पीत और पद्मलेश्याका उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। तथा शुक्ललेश्याका काल यद्यपि साधिक तेतीस सागर है.पर शकलेश्यामें सात कोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सहस्रार कल्पमें ही होता है। यही कारण है कि इन तीन लेश्याओंमें सातं कौके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल क्रमसे साधिक दो सागर,साधिक अठारह सागर और साधिक अठारह सागर कहा है। ११०. क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको अन्तर नहीं है। अनुकृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृति बन्धके अन्तरके समान है। वेदकसम्यग्यदृष्टियों में सात कमौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण है। अनुकृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिअन्तरके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में सात कर्माका अन्तर अवधिज्ञानीके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में क्रमसे आठ और सात कौके उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है। विशेषार्थ-क्षायिकसम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे सात कर्मोंका अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है। कारण कि.उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध इससे कम अन्तरकाल से नहीं होता । तथा इसके साधिक तेतीस सागरके अन्तरसे भी सात कोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है । कारण कि क्षायिक सम्यग्दर्शनके होने पर यह जीव संसारमें साधिक तेतीस सागर कोलसे अधिक काल तक नहीं रहता। यतः यह जीव .ज्ञायिकसम्यग्दर्शन उत्पन्न होनेके प्रारम्भमें और अन्तमें सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करे और मध्यमें अनुकृष्ट स्थितिबन्ध करता रहे, तो यह अन्तरकाल उपलब्ध हो जाता है। यही कारण है कि इसके सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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