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________________ ३८६ महाबँधे ट्ठिदिबंधा हियारे मणुसग दिपंचगस्स उक्क ० हिदि० णाणाव० भंगो । ऋणु० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलिदो गादि० । आहार ०२ उक्क० अ० जह० अंतो०, उक्क० सगहिदी० । तित्थय० उक्क० रात्थि अंतरं । अणु० औघं 1 2 २४२. एस० पढमदंडओ मूलोघं । थी गिद्ध ०३ - मिच्छ० - प्रांता बंधि ०४ - इत्थि० स ० -तिरिक्खग ० पंचसंठा० - पंचसंघ० - तिरिक्खाणु० - उज्जो०अप्पसत्थ०-दूर्भाग- दुस्सर- अणादे० णीचागो० उक्क हिदि० ओघं । अर० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० देमू० । तिरि आयु० - वेडव्वियछक्क - मरणुसंग०-मरणु उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । ग्राहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनु त्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल के समान है । विशेषार्थ – पुरुषवेद की उत्कृष्ट कार्यस्थिति सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है । इसीसे इसमें प्रथम दण्कमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है । पुरुषवेद में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छ्यासठ सागर हैं । श्रघसे स्त्यानद्धि तीन आदि नौ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है । इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ओधके समान कहा है । मात्र स्त्रीवेद सप्रतिपक्ष प्रकृति होनेसे यहाँ श्रोधके समान इसके अनुत्कष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छ्यासठ सागर कहना चाहिए। नपुंसकवेद आदि सोलह प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके तो बन्ध होता ही नहीं। साथ ही इनका कर्मभूमिज जीवके भी बन्ध नहीं होता। इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर ओघसे साधिक दो छ्यासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य कहा है । पुरुषवेद यह अन्तर इसी प्रकार प्राप्त होता है, इसलिए यहाँ यह ओघके समान कहा है । जो जीव दो छयासठ सागर तक सम्यग्दृष्टि और मध्य में सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहा और अन्तमें नौ ग्रैवेयक उत्कृष्ट युके साथ उत्पन्न हुआ, उसके एक सौ त्रेसठ सागर काल तक पुरुषवेद में नरकगति आदि दस प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहां इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर काल प्रमाण कहा है। उपशम श्रेणिपर चढ़ा हुआ जो जीव उतरते समय देवगतिचतुष्कका बन्ध करनेके अनन्तर पूर्व समय में मरकर तेतीस सागर की युवाला देव होता है उसके साधिक तेतीस सागर काल तक देवगति चतुष्कका बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है । सम्यग्दृष्टि मनुष्यके मनुष्यगतिपञ्चकका बन्ध नहीं होता और मनुष्यके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । इसीसे यहाँ इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २४२. नपुंसकवेदमें प्रथम दण्डक मूलोधके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त, विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। तीन आयु, वैकियिक छह, मनुष्यगति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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