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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३८५ २४१. पुरिसेसु पढमदंडो ओघं । णवरि उक्क. हिदि० जह• अंतो०, उक्क सागरोवमसदपुधत्तं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि. उक्क० णाणावभंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० ओघ । णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ०अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्कस्सं गाणवर०भंगो। अणु० ओघं । णिरयायु० उक्क पत्थि अंतरं । अणु० इत्थि० भंगो। तिरिक्रव-मणुसायु० इत्थिभंगो । णवरि सगहिदी । देवायु उक्क० जह० दसवस्ससहस्साणि पुवकोडी समयू०, उक्क० णाणावर भंगो । अणु० जह० अंतो, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादि०। णिरयग-बेई०-तेइं०-चदुरिं-णिरयाणु०-आदाव-थावरादि०४ उक्क. पाणाव०भंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं । देवगदि०४ उक्क० हिदि पाणाव भंगो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । कहा है सो उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि किसी स्त्रीवेदीने देवायुका पचवन पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध किया,पश्चात वह स्त्रीवेदके साथ पूर्वकोटि पृथक्त्व काल तक परिभ्रमण कर तीन पल्यकी आयुवाला स्त्रीवेदी हुश्रा और वहाँ छह महीना शेष रहने पर उसने पुनः देवायुका बन्ध किया,तो देवायुका यह अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। देवी पर्यायमें वैकियिक छह आदि बारह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और वहाँसे च्युत होनेके बाद भी अन्त त काल तक इनका बन्धन होना सम्भव है, क्योंकि ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक पचवन पल्य कहा है। सम्यग्दृष्टि मनुष्यनीके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। इसीसे स्त्रीवेदमें मनुध्यगति आदि पाँच प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य कहा है, क्योंकि मनुष्य सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता । शेष कथन स्पष्ट ही है। २४१. पुरुषवेदी जीवों में प्रथम दण्डक ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल शानावरणके समान है। अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्खर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल शानावरण के समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। नरकायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल स्त्रीवेदके समान है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर दस हजार वर्ष और एक समय कम एक पूर्वकोटि है और उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरसाधिकतेतीस सागर है। नरकगति, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरक गत्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर आदिचारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक सौ बेसठ सागर है। देवगति चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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