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________________ उक्कस्सट्ठिदिबंध अंतरकालपरूवणा ३८७ साणु०-उच्चा०-आहार०२ उक्क० अ० ओघं । देवायु० उक्क० द्विदि० रात्थि अंतरं । अ० द्विदि० पगदिअंतरं । एइंदि० -वीइंदि ० - तीइंदि० चदुरिंदि ० आदावथावर०४ उक्क० पाणाव० भंगो । अर० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । तित्थय० मणुसभंगो । ओरालि० -ओरालि • अंगो ० - वज्जरिसभ० उक० पाणाव० भंगो० । अणु० जह० एग०, उक्क० पुव्वकोडी देसू० । एवं अडकसा० । २४३. अवगदवेदे सव्वपगदी उक्क यत्थि अं० । अणु० जह० उक्क० तो ० । मनुष्यगत्यानुपूर्वी, उच्चगोत्र और आहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओधके समान है । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति चतुरिन्द्रिय जाति आतप और स्थावर चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यों के समान है । श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराच संहननके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल ज्ञानावरणके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि है । इसी प्रकार आठ कषायके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल जानना चाहिए । विशेषार्थ - नरक में मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। नरकमें एकेन्द्रिय जाति आदि नौ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता और सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे अन्तर्मुहूर्त कालतक और इनका बन्ध सम्भव नहीं है । इसीसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । नपुंसकवेदी सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यञ्चके कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक औदारिक शरीर आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण कहा है। यहाँ तिर्यञ्च पर्यायकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होगा । मात्र प्रारम्भमें और अन्तमें इनका बन्ध कराके यह अन्तरकाल ले आना चाहिए । शेष कथन सुगम है । २४३. अपगतवेदमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – नपुंसक वेदसे उपशम श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके उतरते समय सवेदी होनेके एक समय पहिले अपनी सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । इसलिए श्रपगत वेदमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के अन्तर कालका निषेध किया है तथा उपशान्त मोहका काल अन्तर्मुहूर्त होने से यहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तमुहूर्त कहा है। चार संज्वलनकी बन्ध-व्युच्छिति होने के बाद उनका पुनः बन्ध अपगत वेदमें अन्तर्मुहूर्त कालके बाद ही होता है इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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