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________________ सिरिभगवंत भूदबलिभडारयपणी दो महाबंधो बिदियो हिदिबंधाहियारो णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ १. एतो हिदिबंधो दुविधो— मूलपगदिद्विदिबंधो चेव उत्तरपगदिद्विदिबंधो चेव । एत्तो मूलपगदिद्विदिबंधो पुवं गमरिणज्जं । तत्थ इमाणि चत्तारि' अणियोगद्दाराणि पादव्वाणि भवंति । तं जधा - द्विदिबंधद्वाणपरूवरणा सेियपरूवणा आबाधाकंडयपरूवरणा अप्पा बहुगे त्ति । सब अरिहन्तोंको नमस्कार हो, सब सिद्धोंको नमस्कार हो, सब श्राचांयको नमस्कार हो, सब उपाध्यायको नमस्कार हो और लोकमें साधुओंको नमस्कार हो ॥१॥ १. आगे स्थितिबन्धका विचार करते हैं। वह दो प्रकारका है - मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध । आगे मूल प्रकृति स्थितिबन्धका पहले विचार करते हैं। उसके ये चार अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । यथा-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । विशेषार्थ - राग, द्वेष और मोहके निमित्तसे श्रात्मा के साथ जो कर्म सम्बन्धको प्राप्त होते हैं उनके श्रवस्थान कालको स्थिति कहते हैं । कर्मबन्धके समय जिस कर्मकी जो स्थिति प्राप्त होती है, उसका नाम स्थितिबन्ध है । वह ज्ञानावरण आदि मूलप्रकृति और मतिज्ञानावरण आदि उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे दो प्रकारका है। इस अनुयोगद्वारमें इन्हीं दो प्रकारके स्थितिबन्धोंका विविध प्रकरणों द्वारा विस्तारके साथ विचार किया गया है । सर्व प्रथम मूलप्रकृति स्थितिबंधका विचार किया गया है और तदनन्तर उत्तरप्रकृति स्थितिबन्धका विचार किया गया है । मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका विचार करते हुए मुख्य रूपले उसका चार अनुयोगद्वारोंके द्वारा विचार किया गया है । उपअनुयोगद्वार अनेक हैं। वार अनुयोगद्वारोंके नाम मूलमें ही दिये हैं। जिसमें स्थितिबन्धके स्थानोंका विचार किया जाता है वह स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा है । यहाँ स्थितिबन्धस्थान पदसे प्रत्येक कर्मके जघन्य स्थितिबंधस्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबंधस्थानतकके कुल विकल्प 1. पंच०, बंधनक०, गा० ९९-१०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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