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________________ महाबंधे ट्ठदिबंधाहियारे द्विदिबंधद्वाणपरूवणा २. द्विदिबंध द्वाणपरूवणदाए सव्वत्थोवा' सहुमस्स अपज्जत्तस्स हिदिबंधहा गाणि । बादरस्स अपजत्तस्स द्विदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि | मुहुस्स पज्जत्तस्स हिदिबंध द्वाराणि संखेज्जगुणाणि । बादरस्स पज्जत्तस्स विदिधद्वाणाणि संखेज्ज - गुणाणि | बेइंदियपज्जतस्स हिदिबंधारणाणि असंखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तस्स दिबंधारा संखेज्जगुणाणि । तेइंदि० अपज्ज० हिदिबंध ० संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत ० द्विदिबंध • संखेज्जगुणाणि । चदुरिंडिययपज्ज० हिदिबंध० संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्त० द्विदिबंध • संखेज्जगुणाणि । पंचिंदिय अस रिण पज्जत्त ० द्विदिबंध० संखे० गु० । तस्सेव पज्जत्त० डिदि बंध० संखे० गु० । पंचिदिय-सरिणअपज्जत डिदिबंध • संखे० गु० । तस्सेव पज्जत्त० द्विदिबंध ० संखेज्जगुणाणि । परिगृहीत किये गये हैं । एक समय में बद्ध कर्मोंका उस समय प्राप्त स्थितिमें जिस क्रमसे निक्षेप होता है, उसकी निषेकरचना संज्ञा है । इसका विचार करनेवाली प्ररूपणाका नाम निषेकप्ररूपणा है । बँधनेवाले कर्म स्वभावतः या अपकर्षण श्रादिके निमित्तसे जितने काल बाद फल देने में समर्थ होते हैं, उस कालका नाम आबाधाकाल है और जितने स्थितिविकल्पों के प्रति एक एक आबाधाकाल प्राप्त होता है उतने स्थितिविकल्पोंकी एक श्रावाधा होनेसे उसकी बाधाकांडक संज्ञा है। इसका विचार जिस प्रकरण द्वारा किया जाता है उसे श्राबाधाकांडक प्ररूपणा कहते हैं । अल्पबहुत्व पदका अर्थ स्पष्ट ही है। इस प्रकार मूलप्रकृति स्थितिबंधकी प्ररूपणा चार प्रकारकी होती है । स्थितिबंध स्थानप्ररूपणा २. अब सर्वप्रथम स्थितिबंधस्थानप्ररूपणाका विचार करते हैं । उसकी अपेक्षा सूक्ष्म अपर्याप्त स्थितिबंधस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे बादर अपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं। इनसे सूक्ष्मपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे बादर पर्याप्त स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त स्थितिबंधस्थान असंख्यातगुणे हैं। इनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे त्रींद्रिय अपर्याप्त के स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे चतुरिंद्रिय अपर्याप्त के स्थिति बंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे चतुरिंद्रिय पर्याप्त के स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय असंक्षी पर्यातक के स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय श्रसंज्ञी पर्याप्तकके स्थिति - बंधस्थान संख्यातगुणे हैं । इनसे पंचेंद्रिय संज्ञी अपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं और इनसे पंचेंद्रिय संशी पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ - यहाँ किसके कितने गुणे स्थिति बन्धस्थान होते हैं, इसका विचार चौदह जीवसमासोंके द्वारा किया गया है। सामान्यसे एकेन्द्रियके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागर और जघन्य पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागर होता है । द्वीन्द्रियके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पचीस सागर और जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातवाँ भाग कम पच्चीस सागर होता है । त्रीन्द्रियके मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पचास सागर गो० क० गा० १४८, १४९, १५० | पंचसं०, द्वार ५ गा० ५६ ॥ 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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