SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उक्कस्सहिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३७३ अंतरं । अणु० जह० उक्क० अंतो० । मणुसायु० उक्क० जह० अंतो० समयू०, उक० अंतो० । अणु० जह० उक० अंतो० । | २२५. देवे पंचा० - छदंसणा ० - सादासा० - बारसक० - ० - पुरिस० - हस्स-रदिअरदि-सोग-भय-दुगु० - मणुसग०-पंचिंदि० ओरालि ० - तेजा० - क० - समचदु० - ओरालि० अंगो० - वज्जरिसभ० ए०४-मरसारणु० - अगुरु ०४ - पसत्यवि० -तस०४-थिराथिर- सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे० - जस० - अजस० - णिमि० - तित्थय ० - उच्चा० - पंचंत ० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अहारस साग० सादि० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० | थी गिद्धि ०३ - मिच्छ० - अणंतारणुबंधि० ४- इत्थि० - बुंस० पंचसंठा ० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ-दूभग- दुस्सर - अणादे० - णीचा० उक० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठारस साग० सादि: । अणु० जह० एग०, उक्क० एकतीसं सांग० देसू० । दोश्रायु० णिरयभंगो । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० -उज्जो० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० अट्ठा वायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहर्त है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - मनुष्यत्रिक में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोके समान है; यह स्पष्ट ही है । मात्र प्रत्याख्यानावरण चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल मनुष्य त्रिकमें कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण उपलब्ध होता है और प्रत्याख्यानावरण चारके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी इतना ही उपलब्ध होता है । इसीसे यहां प्रत्याख्यानावरण चारका भङ्ग अप्रत्याख्यानावरण चारके समान है, ऐसा कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है । २२५. देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक शरीर श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, यशःकीर्ति, यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगुद्धि तीन, मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःखर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । दो आयुका भङ्ग नारकियोंके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy