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________________ ३७४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे रस साग० सादि० । अणु० जह• एग०, उक्क• अहारस साग० सादि । एइंदियआदाव-थावर० उक्क० अणु० जह• अंतो० एग०, [उक्क०] बे साग० सादि । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं णादूण णेदव्वं ।। ___ २२६. एइंदिएसु तिरिक्वायु० उक्क० जह• बावीसं० वस्ससहस्साणि समयू०, उक्क० अणंतकालं । अणुक० पगदिअंतरं । मणुसायु० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं । मणुसग०-मणुसागु०-उच्चा० उक्क० अणु० जह० अंतो० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सेसाणं [उक्क०] जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है। इसी प्रकार सब देवोंके अपना-अपना अन्तर जानकर कथन करना चाहिए। विशेषार्थ-देवों में ओघ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सहस्रार कल्प तक होता है और सहस्रार कल्पमें उत्कृष्ट आयु साधिक अठारह सागर है, इसलिए यहाँ प्रथम व द्वितीय दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। हॉभवके प्रारम्भ व अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करानेसे यह अन्तरकाल उपलब्ध होता है। मिथ्यादृष्टि जीव नौ ग्रैवेयक तक उत्पन्न होता है और अन्तिम प्रैवेयकके देवकी उत्कृष्ट प्राय इकतीस सागर है। इसीसे यहाँ दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा है। यहाँ प्रारम्भ और अन्तमें मिथ्यादृष्टि रखकर इन प्रकृतियोंका बन्ध करावे और मध्यमें कुछ कम इकतीस सागर तक सम्यग्दृष्टि रखकर इन प्रकृतियोंका बन्ध न होनेसे अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल ले आवे । तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध सहस्रार कल्प तक होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा है। मात्र अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल लाते समय मध्यमें जीवको साधिक अठारह सागर कालतक सम्यग्दृष्टि रखे । एकेन्द्रिय जाति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्धऐशान कल्पतकहोता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। २२६. एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे अन्तर्महर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर. अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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