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________________ उक्कस्स-अद्धाच्छेदपरूवणा २३३ हिदि० वारस सागरोवमकोडाकोडीओ | बारस वस्ससदाणि आबाधा । आबाधूर्णिया कम्मदी कम्मणिसेगो । सादिय० - पारायसं० उक्क० द्विदि० चोदस सागरोवमकोडाकोडीओ । चोद्दस वस्ससदाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मद्विदी कम्मणिसेगो । खुज्जसं ० - श्रद्धा उक्क० डिदि ० सोलस सागरोवमकोडाकोडीओ । सोलस वस्ससदाणि आबाधा | आवाधूलिया कम्मद्विदी कम्मणिसेगो । आहार० - आहार ०अंगो० - तित्थय० उक्क० हिदि० अंतोकोडाकोडीओ | अंतोमुहुतं बाधा । आावाधूपिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । ० ३१. आदेसेण णेरइएस णाणावर ० - दंसणावरण - वेदणी०' मोहणी० छव्वीसं गामा - गोदे अंतराइ ० मूलोघं । तिरिक्ख - मणुसायुगाणं उक्क० हिदि ० पुव्वकोडी | छम्मासाणि आबा० । कम्म० कम्मणिसेगो । तित्थस्स उक्क० हिदि० तोकोडाकोडीओ | अंतोमुहुत्तं आबा० । आबाधू० कम्मट्ठि ० कम्मारिण० । एवं सत्तमु पुढवीसु । गवरि सत्तमा पुढवीए मरणुसगदि - मणुसारणुपुव्वि ० उच्चागो० उक्क० डिदि ० न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान और वज्रनाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बारह कोड़ाकोड़ी सागर है। बारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । स्वातिसंस्थान और नाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चौदह कोड़ाकोड़ी सागर है। चौदह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । कुब्जक संस्थान और अर्द्धनाराचसंहननका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सोलह कोड़ाकोड़ी सागर है । सोलह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । आहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । अन्तर्मुहूर्त श्राबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । ર विशेषार्थ- पहले मूल प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना होता है, यह बतला ये हैं । यहाँ उनकी उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना होता है, यह बतलाया गया है । किसी एक या एकसे अधिक उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध जितना अधिक होता है, उसीको ध्यानमें रखकर पहले मूल प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा गया है । उदाहरणार्थ- मोहनीय कर्मका सत्तर कोटाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षासे कहा गया है। ३१. आदेश से नारकियोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियाँ, नाम, गोत्र और अन्तरायकी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि मूलोघके समान है । तिर्यञ्च श्रायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटिप्रमाण है। छह माह प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधा न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवी में मनुष्यगति, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और १. 'अंतोकोडाकोडी आहार तित्थयरे ।" - गो० क० ग्रा० १३२ ॥ २. मूलप्रतौ मोहणी० चडवीसं णामा- इति पाठः । ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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