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________________ २३२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे वज्जरिसभ०- देवाणुपु० - पसत्थवि०-थिरादिळक० उच्चागो० उक्क० हिदि० दस सागरोमकोडाकोडीओ' । दस वस्ससदाणि आबाधा । आवाधूणिया कम्महिदी कम्मणिसेगो । एवं सगवे ० -अरदि-सोग-भय-दुर्गुछ- रियगदि --तिरिक्खगदि- एइंदिय०पंचिंदिय०--ओरालिय०-वेडव्विय-- तेजा०- ० क० - हुडसंठा ० - श्रोरालिय० -- वेडब्बिय ० अंगो० - संमत्तसेवट्टसंवड ० इ० - वराग०४- णिरय - तिरिक्खाणु० - अगुरु ०४ - आदाउज्जो०अप्पसत्थवि० - [तस०] थावर - बादर - पज्जत्त- पत्तेय-अथिरादिळक - णिमिण - णीचागोदाणं उक० द्विदिबंध बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ' । वे वस्ससहस्साणि आबाधा । वाणिया कम्मदी कम्मणिसेगो । २६. णिरय-देवायूगं उक्क० द्विदि० तेत्तीस सागरोवम० । पुन्त्रकोडितिभागं वाधा | कम्पीकम्मणिसेगो । तिरिक्ख- मणुसायूगं उकस्स० द्विदि० तिि पलिदोवम० । पुव्वकोडितिभागं च आवाधा० । कम्महिदी कम्मणिसेगो । 1 ३०. बीइंदि० - इंदि० - चदुरिंदि० - वामण ० - खीलियसंघडण - मुहुम- अपज्जतसाधारण उक० हिदि० अहारस सागरोवमकोडाकोडीओ' । अहारस वाससदाणि आबाधा । आबाधूणिया कम्मद्विदी कम्मणिसेगो । एग्गोध० वज्जणारा० उक्क० वज्रर्षभनाराच संहनन, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, स्थिरादिक छह और उच्च गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दश कोड़ा-कोड़ी सागर है, एक हजार वर्ष प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्म स्थितिप्रमाण कर्म निषेक है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, श्रसम्प्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्णंचतुष्क, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदिक छह, निर्माण और नीच गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ी सागर है । दो हजार वर्ष प्रमाण श्राबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्म निषेक है । २९. नरकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण श्रावाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्म निषेक है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पत्यप्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण आवाधा है और कर्मस्थितिप्रमाण कर्म निषेक है। ३०. द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, कीलक संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । अठारह सौ वर्ष बाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । १. 'हस्सर दिउच्चपुरिसे थिरछक्के सत्थगमणदेवदुगे । तस्सद्धं गो० क०, गा० १३२ । २. संठाणसंहदीणं चरिमस्सोघं ।'– गो० क०, गा० १२९ । ३. 'अरदीसोगे संढे तिरिक्खभय णिरयतेजुरालदुगे । वेगुब्वादावदुगे णीचे तसवण्ण श्रगुरुतिचउक्के ॥ १३० ॥ इगिपंचिंदियथावरणिमिणा लग्गमण श्रथिरछक्काणं । वीसं कोडाकोडी सागरणामाणमुक्कस्सं ॥१३१॥' गो० क० । ४. सुरणिरयाऊणोधं परतिरिथिाऊण तिथिय पल्ला गो० क०, गा० १३३ । ५. 'दुहीणमादि ति । - गो० क०, गा० १२९ । ६. अट्ठारस कोडाको डी वियलाणं सुहुमतिरहं च । गो० क०, गा० १२९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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