SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे अंतोकोडाकोडीओ। अंतोमुहुर्त आबाधा। आबाधू० कम्महि० कम्मणिसे० । चदुसु हेडिमासु तित्थयरं च णत्थि । ___३२. तिरिक्खेसु · पंचणा०-णवदंसणा-दोवेदणी०-मोहणी छवीसं णिरयतिरिक्ख-मणुसायु० मूलोघं । देवायु० उक्क० हिदि० बावीसं सागरोवमाणि । पुव्वकोडितिभागं आबाधा । कम्महि. कम्मणि । तिरिक्खतिय-एइंदि०-बीइंदि०तेइंदि०-चदुरिंदि०-ओरालिय०-वामण-ओरालि अंगो०-खीलिय०-असंपत्तसेवट्ट - तिरिक्खाणुपुव्वि-आदाउज्जोव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त०-साधार० उक्क० हिदि० अट्ठारस साग०कोडाकोडीअो। अहारस वाससदाणि आवा० । [आबाधू० कम्महि० कम्म- ] णिसेगो। सेसाणं णामपगदीणं गोद-अंतराइगाणं च मूलोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्वपंचिंदियतिरिक्वपज्जत्त-जोणिणीसु। पंचिंदियतिरिक्रवपज्जत्तेसु सव्वपगदीणं उक्क० हिदि० अंतोकोडाकोडीओ । अंतोमु० आबा० । आवाधू० कम्महि० कम्मणिसे० । णवरि तिरिक्ख-मणुसायु० उक्क हिदि० पुचकोडी। अंतोमु० आबा । कम्महि० कम्मणिसे । ३३. मणुस०३ देवायु. आहारदुर्ग तित्थयरं च मूलोघं । सेसं पंचिंदियतिरिक्खमंगो । मणुसअपजत्ता. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा नीचेकी चार पृथिवियों में तीर्थकर प्रकृति नहीं है। ३२. तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, छब्बीस मोहनीय, नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका कथन मूलोघके समान है। देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बाईस सागर प्रमाण है। पूर्वकोटिका विभाग प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तिर्यश्च त्रिक, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, वामन संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलक संस्थान, अपम्प्रातासृपाटिका संहनन, तिर्यश्चगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोडाकोड़ी सागर है। अठारह सौ वर्ष प्रमाण श्रावाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा नामकर्मकी शेष प्रकृतियाँ, गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध आदि मूलोधके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों में जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आवाधा से न्यन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पूर्वकोटि प्रमाण है। अन्तर्मुहर्त प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ३३. मनुष्यत्रिकमें देवायु, आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध श्रादि मूलोघके समान है। शेष भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy