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________________ ३१६ महाबंधे डिदिबंधाहियारे १४४. आदेसेण हैरइएमु पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छत्त-सोलसक०-भयदुगुं०-तिरिक्खगदि-पंचिंदि०-ओरालिय०-तेजा०-क०-ओरालि अंगो०-वएण०४हैं और उनमें ज्ञानावरण पाँच आदि संतालीस ध्रुवाधनी प्रकृतियाँ हैं। इनमें औदारिक शरीरके मिलाने पर कुल ४८ प्रकृतियाँ होती हैं । इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल बतलाया है। सो इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बाद इनका कमसे कम अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कालतक नियमसे होता है,तभी पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम होते हैं। पर यदि कोई जीव त्रस पर्यायके बिना निरन्तर एकेन्द्रिय पर्यायमें परिभ्रमण करतारहे तो उसे उत्कृष्ट रूपसे अनन्तकाल लगता है। तब जाकर वह त्रस होता है और त्रस होनेपर भी संशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त होनेपर ही इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है; अन्यथा नहीं। यही कारण है कि इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल कहा है। औदारिकशरीर ध्रुवबन्धिनी प्रकृति नहीं है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। पर एकेन्द्रिय पर्यायमें वैक्रियिक शरीरके बन्धकी योग्यता न होनेसे निरन्तर औदारिकशरीरका ही बन्ध होता रहता है, इसलिए ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके समान इसका भी उत्कृष्टकाल अनन्तकाल कहा है। इसके बाद साता आदि ४१ प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जो जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सो इसका कारण यह है कि आहारकद्विकके बिना ये सब प्रतिपक्ष प्रकृतियां हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त बन जाता है । तथा गुणस्थानोंके परिवर्तनके निमित्तसे आहारकद्विकका भी जघन्य काल एक समय बन जाता है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त स्पष्ट ही है। कोई जीव बीचमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर साधिकदो छयासठ अर्थात् १३२ सागरतक सम्यक्त्वके साथ रह सकता है । इसीसे यहां पुरुषवेदके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कहा है, क्योकि इस जीवके न तो पुरुष वेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और न स्त्री वेद तथा नपुंसक वेदका ही बन्ध होता है । आयुोंका उत्कृष्ट त्रिभागके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, बाकी अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध ही होता है। इसीसे चारों आयुओंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहर्त कहा है। मात्र योग और कषायके परिवर्तनके कारण इन मार्गणाओंमें इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय भी बन जाता है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है । इनके इतने कालतक तिर्यञ्चद्विक और नीचगोत्रका ही बन्ध होता है । इसी से इन तीन प्रकृतियोके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसके इतने कालतक मनुष्यद्विक और वज्रर्षभनाराच संहननका नियमसे बन्ध होता है। इसीसे इन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर कहा है। जो मनुष्य सम्यग्दृष्टि जीव भोगभूमिमें जन्म लेता है, उसका दोनों पर्यायोंका काल साधिक तीन पल्य होता है । इसके देवगति चतुष्कका नियमसे बन्ध होता है । इसीसे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका उत्कृष्टकालसाधिक तीन पल्य कहा है। इसी प्रकार शेष रही प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालका विचार कर लेना चाहिए। १४४. आदेशसे नारकियों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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