SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ११७ उक० तिरिक्खाणु ० - ० गुरु ०४-तस०४- रिणमि० णीचा० - पंचंत० उक० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणुक० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० । पुरिस० - मणुसग ०समचदु० - वज्जरिसभ ० - मरणुसारणु० -पसत्थवि ० सुभग-सुस्सर - आदे० - उच्चा ० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० | अक० हिदि० जह० एग०, उक० तेत्तीसं साग० सू० । तित्थयर० उक० द्विदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणुक० डिदि० जह० एग०, उक्क०, तिणिसागरो० सादि० । सेसारणं उक० अणुक्क० द्विदि० जह० एग०, उक० अंतो० । एवं सन्नगाए पुढवीए । वरि म सगदि० - उच्चा० उक्क० द्विदि० जह० ० । ० द्विदि० जह० "अंतो", मणुसाणु उक्क० तेत्तीसं साग० दे० । तित्थयरं च वज्ज० । पढमादि छट्टि त्ति तिरिक्खग०तिरिक्खाणु-णीचा० सादभंगो । सेसं खिरयोघं । वरि अप्पप्पणो हिदि कादव्वं । तित्थयर० उक्क० हिदि० रियोघं । ऋणु हिदि० जह० एग०, उक्क० सागरो० देस्र० तिथि साग० देसू० तिरिण साग० सादि० । 1 C शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल तेतीस सागर है । पुरुषवेद, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुखर, आदेय और उसगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँपर मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । परन्तु यहाँपर तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता । पहिली पृथिवीसे लेकर छठवीं पृथिवीतक तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके कालके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका उक्त काल सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी - अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिए । तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल सामान्य नारकियोंके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रथमादि तीन पृथिवियोंमें क्रमसे कुछ कम एक सागर, कुछ कम तीन सागर और साधिक तीन सागर प्रमाण है । विशेषार्थ - सातवें नरकमें पाँच ज्ञानावरण आदि प्रथम दण्डकमें कहीं गईं ५९ प्रकुतियोंका मिथ्यादृष्टि नारकीके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । दूसरे दण्डकमें कही गई पुरुषवेद आदि १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy