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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे 10 १८. [ आहारदुगस्स सव्वत्थोवा अपुव्वकरणस्स ] जह० द्विदिबं० । [ तस्सेवउक्कस्स० द्विदिबन्धो ] | संखेज्जगु० । अपमत्तसंज० जह० द्विदिबं० संखेज्जगु० | तस्सेव कस्स • द्विदिबं० संखेज्जगु० । तित्थयरस्स सव्वत्थोवा अपुव्वकरणस्स जह० हिदिबंध । तस्सेव उक्क० द्विदिबं० संखेज्जगु० । एवं याव संजदसम्मादिति त्ति दव्वं । एवं द्विदिबंधापरूवणा समत्ता । ० २२८ णिसेगपरूवणा १६. णिसेगपरूवणदाए दुवे अणियोगदाराणि - अरणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा य । अतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिद्वीणं सव्वपगदी आयुवज्जाणं अपणो बाधं मोत्तूण यं पढमसमए [ पदेसग्गं खिसित्तं तं बहुगं । जं विदियसमए पदे णिमित्तं तं विसेसहीणं । जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं ] विसेसहीणं । एवं विसेसहीणं विसे० याव उक्कस्सिया अष्पष्पणो हिदि ति । एवं पंचिदियस पिज्जत्त - श्रसणिपंचिंदिय-चदुरिं० - [ तेइंदिय- ] बीइंदि० - एइंदि०पज्जत्तापज्जत्त • सव्वपगदी सरिगभंगो । I विशेषार्थ - संयतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे संयतासंयतके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे इसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे असंयतसम्यग्दृष्टि पर्याप्त के जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे असंयत सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे इसीके पर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इस प्रकार सम्बन्ध मिलाकर देवagess स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व कहे। शेष कथन सुगम है । १८. आहारकद्विकका पूर्वकरणके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे श्रप्रमत्तसंयतके जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। तीर्थकर प्रकृतिका अपूर्वकरणके जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे उसीके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्याता है । इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि स्थानके प्राप्त होने तक अल्पबहुत्वका कथन करना - हिए । विशेषार्थ - श्राहारकद्विकका श्रप्रमत्तसंयत आदि दो और तीर्थकर प्रकृतिका असंयतसम्यग्दृष्टि आदि पाँच गुणस्थानोंमें बन्ध होता है, इसलिए इसी विशेषताको ध्यान में रखकर इनके जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व कहा है । इस प्रकार स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई । निषेकप्ररूपणा १९. अब निषेकप्ररूपणाका कथन करते हैं। उसके ये दो अनुयोगद्वार हैं— श्रनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । श्रनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके । कर्मके सिवा सब प्रकृतियोंके अपनी-अपनी आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समयमें कर्म परमाणु निक्षिप्त होते हैं, वे बहुत हैं । जो दूसरे समय में निक्षिप्त होते हैं, वे विशेषहीन हैं। जो तीसरे समय में निक्षिप्त होते हैं, वे विशेषहीन हैं। इस प्रकार अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमें उत्तरोत्तर विशेषहीन- विशेषहीन कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय संशी अपर्याप्त, अशी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, अशी पञ्चेन्द्रिय अप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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