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________________ आवाधाकंडयपरूवणा २२९ २०. परंपरोवणिधाए पंचिंदियाणं सरणीणं असरणीणं पज्जत्तगाणं सव्वपगदीणं पढमसमयपदेसग्गादो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गतॄण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा याव उकस्सिया हिदि ति । २१. एयपदेसगुणहाणिहाणंतरं असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो। णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि थोवाणि। एयपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेज्जगुणं । एवं पंचिंदियसरिण-असएिणअपज्जत्त-चदुरिंदि०-तीइदि०--बीइंदि०--एइंदि०पज्जत्तापज्जत्ताणं आयुगवज्जाणं सव्वपगदीणं । एवं णिसेगपरूवणा समत्ता । आबाधाकंडयपरूवणा २२. आवाधाखंडयपरूवरणदाए पंचिंदियाणं सएगीणं चदुरिंदि०-तीइंदि०बीइंदि०-एइंदि० आयुगवज्जाणं सव्वपगदीणं अप्पप्पणो उकस्सियादो हिदीदो समए समए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तं ओसक्किदूण एवं बाधाखडयं करेदि । एस कमो याव जहएणहिदि त्ति । प्ति, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, एकेन्द्रिय पर्याप्त और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में सब प्रकृतियोंकी निषेकप्ररूपणा संशियोंके समान है। २०. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय असंशी पर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंके प्रथम समयमें निक्षिप्त हुए परमाणुओंसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाने पर वे द्विगुणहीन होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक वे द्विगुणहीन-द्विगुणहीन होते जाते हैं। २१. एकप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है और नानाप्रदेशद्विगुणहानिस्थानान्तर पल्यके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं। इनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय असंही अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, एकेन्द्रिय पर्याप्त और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके आयुओंके सिवा शेष सब प्रकृतियोंकी परम्परोपनिधा जाननी चाहिए। इस प्रकार निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई। आबाधाकाण्डकारूपणा २२. अब आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करते हैं। उसकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय संशी, पञ्चेन्द्रिय प्रसंशी, चतुरिन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवोंमें आयुकर्मके सिवा सब प्रकृतियोंका अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे समय-समय उतरते हुए पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति उतरकर एक आबाधाकाण्डक करता है और यह क्रम अपनी-अपनी जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक चालू रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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