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________________ उक्कस्स-श्रद्धाच्छेदपरूषणा २३७ सव्वपगदीणं सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपएणारसाए सागरोवमसदस्स तिषिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण उणिया । अंतोमु०. आवा० । [आबाधू० कम्महि०] कम्मणिसे० । तिरिक्खमणुसायू० उक्क० द्विदि० पंचिंदियतिरिक्वअपेज्जत्तभंगो । ३७. पंचिंदिय-तस० तेसिं चेव पज्जत्ता० मूलोघं । पंचिंदिय-तसअपज्ज० मणुसअपज्जत्तभंगो । पंचकायाणं एइदियभंगो। रणवरि तिरिक्रव-मणुसायुगस्स उक्क० हिदि० पुवकोडी । सत्त वस्ससहस्साणि सादिरेगाणि बे वस्ससहस्साणि सादिरे [तिणि वस्ससहस्साणि सादिरेगणि आवा०] तेउ०-वाउ तिरिक्खायु० उक्क० हिदि. पुवकोडी। एयरादिंदिया० एयं वाससहस्सं च आवाधा० । [ कम्मट्टिदी कम्म-] णिसेगो। ३८. पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० मूलोघं । ओरालियका० मणुसपज्जत्तभंगो । ओरालियमिस्स० मणुसअपज्जत्तभंगो। णवरि देवगदि०४ तित्थयरं उक्क० हिदि० अंतोकोडाकोडी । अंतोमु० आबा० । [आबाधू० कम्महि कम्म-] णिसे । वेउव्वियका० देवो । वेउव्वियमिस्स० सव्वपगदीओ पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । णवरि विसेसो जाणिदव्वो। आहार-आहारमिस्स. सग-सग उक्क. प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा इन्हींके अपर्याप्तकोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे पश्चीस सागरका, पचास सागरका और सौ सागरका पल्यका संख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है। अन्तर्मुहर्त प्रमाण श्रावाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषक है। तथा तिर्यश्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिवन्ध पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। ३७. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मूलोधके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। तथा पाँच स्थावरकायिक जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्च आयु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। तथा पृथिवीकायिक जीवोंके साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण, जलकायिक जीवों के साधिक दो हजार वर्ष प्रमाण और वनस्पतिकायिक जीवोंके साधिक तीन हजार वर्षप्रमाण आबाधा है। अग्निकारिक और वायुकायिक जीवोंके तिर्यञ्चायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है। क्रमसे एक दिन रात और एक हजार वर्षप्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ३८. पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी और काययोगी जीवोंका भङ्ग मृलोके समान है। औदारिक काययोगी जीवोंके मनुष्य पर्याप्तकोंके समान है। औदारिकमिश्रा काययोगी जीवोंके मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके देवगति चतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आवाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है। वैक्रियिककाययोगी जीवोंके सामान्य देवोंके समान है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। इतनी विशेषता है कि विशेषका कथन जानकर कहना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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