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________________ २३६ महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे सेिगो । सेसाणं पगदीरणं उक्कस्स० द्विदि० सागरोवमस्स तिरिण सत्तभागा बे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबाधा० । [आबाधू० कम्मट्ठि ० ] कम्मणि० । तिरिक्ख - मणुसायुगाणं उक्क० द्विदि० पुव्वकोडी । सतवाससहस्सारिण सादिरे आबाधा । कम्मद्विदी कम्मणिसे० । बादरए इंदियअपज्जत्ता ० सुहुम० पज्जत्तापज्जत्ता० सव्वपगदीणं उक्कस्स • डिदि • सागरोवमस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा ने सत्तभागा पलिदोवमस्स श्रंखेज्जदिभागेण ऊणिया । अंतोमु० आबा । [आबाधू० कम्महि० कम्म - ] पिसेगो । तिरिक्खमसायुगाणं उकस्स० द्विदि० पुव्वकोडी । तोमु० आबाधा० । [कम्महिदी कम्म- ] पिसेगो । • ० ३६. बीइंदिय-तीइंदिय-चदुरिंदिय० तेसिं चेव पज्जत्ता० पंचरणाणावर ० -दंसगावर० - असादवे ० - मिच्छत्त ० - सोलसक० याव पंचंतरा० सागरोanuary सागरोवमपणारसाए सागरोवमसदस्स तिरिण सत्तभागा सत्त सत्तभागा [चत्तारि सत्तभागा] बे सत्तभागा । अंतो० आबा० । [ आबाधू० कम्पट्ठि० कम्म- ] सेिगो । सेसा सादादी उच्चागोदाणं तं चैव । वरि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊरिणया । अंतो० आबा० । [ आबाधू० ] कम्महिदी कम्मणि० । तिरिक्ख - मणुसायु उक्क० हिदि० पुव्वकोडी । चत्तारि वासाणि सोलस रादिंदियाणि सादि० बे मासं च बाधा० । [ कम्मट्टिदी ] कम्मणिसे० । तेसिं चेव अपज्जत्त० एक सागरका पल्यका श्रसंख्यातवां भाग कम तीन बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि प्रमाण है, साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंके सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागरका पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग कम तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग, चार बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तथा तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । श्रन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। ३६. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और इनके पर्याप्त जीवोंके पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व और सोलह कषायसे लेकर पाँच श्रन्तरायतक की प्रकृतियोंका क्रमसे पचीस सागरका, पचास सागरका और सौ सागरका तीन बटे सात भाग, सात बटे सात भाग और दो बटे सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । सातासे लेकर उच्च गोत्रतक शेष प्रकृतियोंका वही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है । इतनी विशेषता है कि वह पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग कम है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्णकोटि वर्ष प्रमाण है । चार वर्ष, साधिक सोलह दिन रात और दो माह प्रमाण आबाधा है तथा कर्मस्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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