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________________ २३८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे द्विदि० तोकोडाको ० | अंतोमुहुत्तं बाधा । [ आवाधू० कम्महि० कम्परिण० ] वरि देवायुगस्स तेत्तीस सागरो० । पुव्वकोडितिभागं आबा० । [ कम्मडिदी कम्म- ] रिसे० । केम्मइयका० सगपगदीणं ओरालियमिस्सकायजोगिभंगो । ३६. इत्थवेदगे बीड़ दि० - तीइंदि-चदुरिंदि ० - वामरण० - ओरालि० अंगोवं० खीलियसं० - असंपत्तसेवट्टसं ० मुहुम-अपज्जत्त - साधारण उक्क० द्विदि० अट्ठारस सागरोवमकोडाको ० । अट्ठारस वाससदाणि आबा० । [ आबाधू० कम्मट्ठि० कम्म- ] सेि० । सेसाणं मूलोघं । पुरिसवेदगेसु मूलोघं । एवंसंग० आदाव ० थावर० क० द्विदि० अट्ठारस सागरो० कोडाकोडी० । अट्ठारस वाससदाणि आबाधा । ( आवाधू ० कम्मट्ठि ० ) कम्मणिसे ० । सेसाणं मूलोघं । अवगदवे पंचणारणा०चदुदंसणा ० -पंचंतराइ उक्क० द्विदि० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अंतोमु० आबाधा० । [ यात्राधू० कम्पट्टि० कम्म- ] गिसे० । सादावेद० - जसगि०-उच्चागो० क० हिदि० पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । अंतोमु० आबा० । [ आबाधू० कम्मट्ठ० ] कम्मणिसे ० । चदुसंज० उक्क० डिदि ० संखेज्जारिण वासाणि । अंतोमु० आबाधा० । [आबाधू०] कम्प० कम्मणिसे० । कोधादि ०४ मूलोघं । जीवों अपनी-अपनी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । इतनी विशेषता है कि देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर प्रमाण है । पूर्वकोटिका त्रिभाग प्रमाण बाधा है और कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । कार्मणकाययोगी जीवों के अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है । ३९. स्त्रीवेदवाले जीवोंके द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, वामन संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, कीलक संस्थान, श्रसम्प्राप्तासृपटिकासंहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । अठारह सौ वर्ष प्रमाण बाधा है और आबाधासे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है । पुरुषवेदवाले जीवोंके सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। नपुंसक वेदवाले जीवोंके आतप और स्थावर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है । अठारह सौ वर्ष प्रमाण आबाधा है और बाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा शेष सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघके समान है। अपगतवेदवाले जीवोंके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और श्रावाधासे न्यून 'कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है। तथा सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और बाधासे थून कर्मस्थितिप्रमाण कर्मनिषेक है । चार संज्वलनोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यात वर्ष प्रमाण है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा है और श्राबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक है । क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके अपनी-अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोके समान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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