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________________ भुजगारबंधे सामित्ताग्रमो सामित्तागमो २७३. सामित्त गुगमेण दुविहो गिद्देसो — घेण देण य । तत्थ ओघेस सत्तणं क० भुज० अप्पद० [ अवधि० ] कस्स ? रणदरस्स । श्रवत्तव्वबंधो कस्स ? पदरस्स उवसमरणादो परिवदमाणगस्स मणुसस्स वा मणुसिणीए वा पढमसमयदेवस्स वा । एवं ओघभंगो मणुस ०३ - पंचिंदिय-तस०२- पंचमरण० - पंचवचि० कायजोगि ओरालियका० - अवगद ० - अभि० सुद०-धि ०-मरणपज्ज० संजद ० - चक्खु ० -अचक्खु०अधिदं० सुक्कले० - भवसि ० - सम्मादि ० खइग ० -उवसमस ० - सरिण आहारगति । स्वरि मणुस ०३ - पंचमरण० -- पंचवचि ०--ओरालियका० - श्रवगढ़ ० मरणपज्ज० -संजदा० सत्तण्णं क० अवत्तव्व ० कस्स ? रणदरस्स उवसमणादो परिवदमाणस्स । एदेसिं सव्वेसिं आयु० अवत्तव्वबंधो कस्स ? अरणदरस्स पढमसमए आयुबंधमाणस्स | ते परं पदबंधो । २७४. वेडव्वियमि० कम्मइ० सम्मामि० अणाहार० सत्तां क० भुज० अप० अवहि० कस्स १ अणदरस्स । एवं सुहुमसं० छरणं कम्माणं । सेसा - १४७ के समान कहा है; शेषका नहीं । इनके सिवा यहाँ अन्य जितनी मार्गणाओंका निर्देश किया है, उनमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति या उपशम श्रेणिके उपशान्त मोह गुणस्थानकी प्राप्ति होकर पुनः पतन सम्भव नहीं है, इसलिए उनमें सात कर्मोंके अवक्तव्य पदका विधान नहीं किया । शेष कथन सुगम है । स्वामित्वानुगम २७३. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और श्रादेश । उनमें से ओकी अपेक्षा सात कर्मोंके भुजगारबन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीच इनका स्वामी है । श्रवक्लव्यबन्धका स्वामी कौन है ? जो अन्यतर मनुष्य या मनुष्यनो उपशमश्रेणिसे गिर रहा है या उपशमश्रेणिमें मरकर प्रथम समयवर्ती देव हुआ है, वह श्रवक्लव्यबन्धका स्वामी है । इस प्रकार ओधके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, अपगतवेदी, आभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और श्राहारक जीवके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, श्रदारिककाययोगी, अपगतवेदी, मन:पर्ययज्ञानी और संयत जीवों में सात कर्मोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर जो उपशमश्रेणिसे पतित हो रहा है, वह सात कर्मोंके प्रवक्तव्यबन्धका स्वामी है । इन सब मार्गणाओं में श्रायुकर्मके अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो प्रथम समयमें श्रायुकर्मका बन्ध कर रहा है, वह श्रवक्लव्य बन्धका स्वामी है । इससे आगे श्रल्पतरबन्ध होता है । २७४. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवों में सात कर्मोंके भुजगारबन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर उक्त मार्गणावाला जीव स्वामी है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह क्रमोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्धका स्वामित्व जान लेना चाहिए। शेष सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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