SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारें ● for anoint अप्परबंधगा ये । एवं ओघभंगो मणुस ० ३-पंचिंदिय-तस०२पंचमण० - पंचवचि०- कायजोगि ओरालियका० - आभि० सुद० अधि०-मणएज्ज०-संजदचक्खु०- प्रचक्खु ० अधिदं ० - सुकले० - भवसि० - सम्मादि ० खइग०- सरिण- आहारग ति । २७२. वेडव्वियमि० -कम्मइ० - सम्मामि० णाहारग० सत्तएां क० सुहुमसं० छ० अत्थि भुज० अप्पद० अवदि० । अवगद ० - उवसमस० सत्तर क० अत्थि भुज० अप्पद० अवद्वि० अवत्तव्वबंधगा य । सेसाणं सव्वेसि सत्तराणं क० अस्थि भुज० [प्पदर० ] अवद्विदबंधगा य । आयु० मूलोघं । गवरि लोभे मोहणी० ओघं । करनेवाले जीव हैं और अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं । इसी प्रकार श्रधके समान मनुयत्रिक, पञ्चेन्द्रिय द्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, ग्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, श्रवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जोवोंके जानना चाहिए । विशेषार्थ - श्रायुकर्मका प्रथम समयमें जो बन्ध होता है, वह अवक्तव्य ही होता है, क्योंकि बन्धमें अन्तर पड़कर पुनः बन्ध होना इसीका नाम अवक्तव्य है । इसे भुजगार, अल्पतर या अवस्थितबन्ध नहीं कह सकते, इसलिए इसकी श्रवक्तव्य संज्ञा है । तथा द्वितीयादि समय में अल्पतर बन्ध होता है, क्योंकि आयुकर्मका प्रथम समय में जो स्थितिबन्ध होता है, उससे द्वितीयादि समयों में उत्तरोत्तर वह हीन हीनतर ही होता है, ऐसा नियम है । यह तो श्रायुकर्मकी व्यवस्था हुई। अब रह गये शेष कर्म सो उनके भुजगार आदि चारों बन्ध सम्भव हैं। इनमें श्रवक्तव्य बन्ध तो उपशमश्रेणि पर चढ़कर पुनः प्रतिपातकी अपेक्षा या मरणकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिए। तथा शेष तीन किसीके भी हो सकते हैं । पिछले समयकी अपेक्षा अगले समय में स्थितिबन्धकी वृद्धिके कारणभृत संक्लेश परिणामोंके होने पर भुजगार स्थितिबन्ध होता है, स्थितिबन्धकी हानिके कारणभूत विशुद्ध परिणामोंके होने पर अल्पतर स्थितिबन्ध होता है और अवस्थित स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंके होने पर अवस्थित स्थितिबन्ध होता है। शेष कथन सुगम है । २७२. वैक्रियिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक train सात कर्मोंका और सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवों में छह कर्मोंका भुजगार बन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवस्थितबन्ध करनेवाले जीव हैं । अपगतवेदी और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मोंका भुजगारबन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं, अवस्थितबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवक्तव्य बन्ध करनेवाले जीव हैं। शेष सब मार्गणाओं में सात कमौका भुजगारबन्ध करनेवाले जीव हैं, अल्पतरबन्ध करनेवाले जीव हैं और अवस्थितंबन्ध करनेवाले जीव हैं। तथा श्रायुकर्मका भङ्ग मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि लोभकषायवाले जीवों में मोहनीयकर्मका भङ्ग श्रधके समान है । विशेषार्थ - उपशम सम्यत्क्व और अपगतवेद उपशम श्रेणि पर चढ़ते और उतरते समय दोनों अवस्थाओं में उपलब्ध होते हैं, इसलिए इन दोनों मार्गणाओं में सात कर्मोंके चारों पद होते हैं । लोभकषाय सूक्ष्यसाम्पराय गुणस्थान तक होता है, इसलिए इसमें मोहनीय कर्मके चारों पद सम्भव हैं, शेष छह कर्मोंके नहीं; क्योंकि इस मार्गणा में शेष छह कर्मोंके भुजगार, श्रल्पतर और श्रवस्थित पद ही होते हैं। इसलिए इसमें मोहनीयका भङ्ग 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy