SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे द्विदिवंधाहियारे १०८. भवसिद्धिया० मूलोघं । अन्भवसिद्धि० मदिय • भंगो । १०६. सम्मादि० - खइग ० अधिभंगो । वरि खड्गे याओ मिच्छत्ताभिमुहाओ पगदीओ असं० सत्याणे सागार- जा० तप्पा ओग्गसंकिलि० । एवं तप्पा ओग्गसंकिल • वेदगे श्रधिभंगो । एवं उवसम० । ११०. सासणे पंचणा० णवदंसणा ० श्रसादावे ० - सोलसक० - इत्थिवे ० -अरदिसोग-भय-दुगु० - तिरिक्खगदि-पंचिंदि० ओरालिय० - तेजा ० क ० - मणुसग ० -ओरालि०अंगो०- खीलियसंघ०-वरण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगुरु ०४-उज्जोव - अप्पसत्थ०-तस० ४-न्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रौन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, श्रातप, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, साधारण और नीचगोत्र इन सोलह प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता । कुल १०४ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । शेष विशेषता मूलमें कही ही है । १०८. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । तथा भव्य जीवोंमें मत्यशानियोंके समान है । २८२ विशेषार्थ - भव्यजीवोंमें श्रधप्ररूपणा और श्रभव्यजीवोंमें मत्यशानियोंकी प्ररूपणा श्रविकल घटित हो जाती है, इसलिए इन मार्गणाओं में अपनी-अपनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी क्रमसे श्रघ और मत्यज्ञानियोंके समान कहा है। 1 १०९. सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रवधिज्ञानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जो अवधिज्ञानी जिन प्रकृतियोंके मिथ्यात्वके श्रभिमुख होनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है, क्षायिकसम्यक्त्वमें उन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी साकारजागृत और तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला स्वस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टि जीव होता है। इसी प्रकार वेदकसम्यक्त्वमें अवधिज्ञानियोंके समान तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला जीव अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति · बन्धका स्वामी होता है। तथा इसी प्रकार उपशम सम्यक्त्वमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी जानना चाहिए । विशेषार्थ – पहले अवधिज्ञानी जीवोंके ७९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, यह बतला आये हैं। उन्हींका बन्ध सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके होता है। तथा और सब विशेषताएँ भी एक समान हैं, इसलिए इन दोनों मार्गणाओंमें उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी अवधिज्ञानी जीवोंके समान कहा है। मात्र क्षायिक सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, इसलिए अवधिज्ञानमें जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व मिथ्यात्वके सन्मुख हुए जीवको प्राप्त होता है, उनका स्वामित्वं क्षायिकसम्यक्त्वमें स्वस्थानवर्ती जीवके कहा है । वेदकसम्यग्दृष्टि और अवधिज्ञानीके कथनमें भी कोई अन्तर नहीं है, इसलिए वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में भी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व अवधिज्ञानी जीवोंके समान कहा है । उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंका और सब कथन तो इसी प्रकार है । मात्र इसके मनुष्यायु और देवायुका बन्ध नहीं होता, इसलिए इसके बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ७९ के स्थान - में ७७ कहनी चाहिए । ११०. सासादन सम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, पञ्चेन्द्रियजाति, श्रदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, मनुष्यगति, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, कीलित संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चानुपूर्वी, गुरुलघुचतुष्क, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसवतुष्क, अस्थिर श्रादिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy