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________________ उकस्स-सामित्तपरूवणा २८१ १०७. सुक्काए पंचणा-णवदंसणा-असादा०--मिच्छत्त-सोलसक०-णवुस०-- भरदि-सोग-भय-दुगु-मणुसगळ-पंचिंदियजादि-ओरालि-तेजा-क-हुडसं०-ओरालि.अंगो०-असंपत्तसेवट्ट-वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४--अथिरादिछक्क-णिमिण-णीचा०-पंचत० उक्क. हिदि० कस्स० ? अण्ण. आणददेवस्स मिच्छादि० सागार-जा. तप्पा उक्क०संकिलि० । सादावे-इत्थिल-पुरिस-हस्सरदि-पंचसंठा-पंचसंघ०-पसत्यवि०-थिरादिछक्क-उच्चागो० उक्क. हिदि कस्स० ? अण्ण० तस्सेव आणददेवस्स तप्पाओग्गसंकिलि । मणुसायु० उक्क० हिदि. कस्स० ? अएण. देवस्स मिच्छादि० सम्मामि० तप्पाओग्गविसुद्ध० । देवायु. ओघं । देवगदि०४ उक्क० हिदि० कस्स० ? अण्ण तिरिक्ख० मणुस० मिच्छादि. सागार-जा० उक्क० संकिलि । आहार-आहार०अंगो० अोघं । तित्थयरं तेउभंगो। नहीं किया है, ये हैं–तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, छह संहनन, वर्णादि चार, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्वास, आतप, उद्योत, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश-कीर्ति और नीचगोत्र । यहाँ मूलमें दोनों स्वरोंका अलगसे निर्देश किया है, इसलिए स्थिर आदि छहमें निर्माण प्रकृतिकी परिगणना कर लेनी चाहिए । तात्पर्य यह है कि पीतलेश्यामें कुल १११ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, इसलिए दूसरे आदि दण्डकों में जिन प्रकृतियों का नामोल्लेख किया है,उनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ प्रथम दण्डकमें ले लेनी चाहिए । पनलेश्यामें पूर्वोक्त १११ प्रकृतियों में से एकेन्द्रियजातिआतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंके कम कर देने पर कुल १०८ प्रकृतियोंका बन्ध होता है । शेष विशेषता मूलमें कही ही है। १०७, शुक्ल लेश्यामें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदा. रिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिरादिक छह निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर आनतकल्पकादेव जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदिक छह और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर वही श्रानत कल्पका देव जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है,वह उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है । मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतरदेव जो मिथ्यादृष्टि है या सम्यग्दृष्टि और तत्प्रायोग्य विशुद्धपरिणामवाला है,वह मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च या मनुष्य जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है,वह देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। आहारक शरीर और आहारक प्राङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी प्रोधके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी पीतलेश्याके समान है। विशेषार्थ शुक्ल लेश्यामें नरकायु, तिर्यञ्चायु, नरकगतिद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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