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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २७१. पुढविका० तिरिक्खायु० एइंदियभंगो। सेसं उक्कस्सभंगो। एवं पंचकायाणं । तस०२ पंचिंदियभंगो । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । तसअपज्जत्त० पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। २७२. पंचमण-पंचवचि० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छत्त-सोलसक०-भयदुगु-चदुअआयु०-तिएिणसरीर०-आहार०अंगो०-वएण०४-अगु०-उप०-णिमि०तित्थय०-पंचंत० जह• अज० णत्थि अंतरं। णवरि वचिजोगि०-असच्चमोस० पंचणा०एतदंस-मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगु-तेजा-क-वएण०४-अगुरुलहु०-उपघा०णिमि० अज० जह• एग०, उक्क० अंतो । सेसाणं जह• पत्थि अंतरं। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो०। २७३. कायजोगीसु खवगपगदीणं वेउव्वियछक्क-तित्थय. जह० पत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णिरय-देवायु० जह० अज० णत्थि २७१. पृथिवीकायिक जीवों में तिर्यञ्चायका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पाँच कायवाले जीवोंके जानना चाहिए। त्रस और अस पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। त्रस अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। २७२. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण,मिथ्यात्व, सोलह कषाय,भय, जुगुप्सा, चार आयु, तीन शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इतनी विशेषता है कि वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-यहाँ प्रथम दण्डकमें कही गई शानावरणादि प्रकृतियों में से कुछ ऐसी प्रकतियाँ हैं जिनका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है और कुछ ऐसी प्रक्रतियाँ हैं जि जघन्य स्थितिबन्ध संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयतके होता है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र वचनयोगी और अनुभयवचनयोगी जीवों में पाँच दर्शनावरण आदि प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध द्वीन्द्रिय पर्याप्तके होता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए यह उक्त प्रकारसे कहा है। यहाँ चार आयुओंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है,यह स्पष्ट ही है। २७३. काययोगी जीवों में क्षपकप्रकृतियाँ वैक्रियिक छह और तीर्थङ्कर इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरएक समय है और उत्कृष्ट प्रान्तर अन्तर्मुहूर्त है । नरकायु और देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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