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उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा
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१८१. सरि० पंचिदियपज्जत्तभंगो । असरिण० धुविगाणं ओरालि० तिरिक्खगदितिगं च चत्तारि यु० ओघो । सेसागं उक्क० अ० जह० एग०, उक्क ० तो ० ।
१८२. आहार० धुविगाणं तिरिक्खगदि-ओरालि० -तिरिक्खाणु ०-पीचा० उक्क० ओवं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स सं० । सेसा पगदी मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो | एवं उक्कस्सकालं समत्तं ।
विशेषार्थ — सम्यग्मिथ्यादृपि गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इसमें पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है । कारण कि जो मिथ्यात्वके श्रभिमुख उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला जीव होता है, उसके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और अन्यके अनुत्कृष्ट, इसलिए ये दोनों अन्तर्मुहूर्त से न्यून नहीं होते । यद्यपि इन प्रकृतियों में कुछ परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, पर उनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक अलग-अलग गतिके जीव होने से उनका भी वहीं काल बन जाता है । साता वेदनीय आदि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध स्वस्थानमें होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है; क्योंकि एक तो इनका स्वस्थानमें बन्ध होता है और दूसरे ये परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इस कालके प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं आती । शेष साता वेदनीय श्रादि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके श्रभिमुख हुए उत्कृष्ट संक्लेशवाले जीवके होता है । यतः यह बन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । पर ये प्रकृतियाँ भी परावर्तमान हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहा है।
१८१. संशी जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके समान है । श्रसंज्ञी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगति त्रिक और चार श्रयुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ - पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो काल घटित करके बतला आये हैं, उससे संशी जीवोंके कालमें कोई विशेषता नहीं है; इसलिए संज्ञी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
१८२. आहारक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ तिर्यञ्चगति, श्रदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोधके समान है। अनाहारक जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल कार्मण काययोगी जीवोंके समान है ।
विशेषार्थ - आहारकों की उत्कृष्ट कार्यस्थिति अङ्गुलके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी
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