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________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे १२६. इत्थि० - पुरिस ० प' चरणा० - चदुदंसणा ० - सादावे ० चदुसंज० - पुरिस०जसगि० - उच्चा० - प'चंत० जह० द्विदि० कस्स० १ अरण० अणियट्टि० खवग० जह० द्विदि० वट्ट० | आहार० - आहार० अंगो० - तित्थय ० मूलोघं । एवरि इत्थवेद ० तित्थय- अपुव्वकरणउवसामयस्स | सेसाणं पंचिदियतिरिक्खभंगो । एवं स ० खवगपगदी इत्थभंगो । सेसं सूलोघं । अवगदवेदे श्रघं । १३०. कोध० - माण० - माया० एवं सगभंगो । एवरि तित्थयरं श्रघं । लोभे मूलोघं । ३०४ १२९. स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर अनिवृत्तिक्षपक जो जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आहारक शरीर, आहारक श्राङ्गोपाङ्ग और तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समन है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद में तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पूर्वकरण उपशामक जीव है । इनके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है । नपुंसकवेदी जीवों में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्त्रोवेदी जीवोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है । अपगतवेद में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोघके समान है । विशेषार्थ - स्त्रीवेद, पुरुषवेद अपने अपने सवेद भागतक होते हैं इसलिए इनमें दसर्वे गुणस्थान और नौवें गुणस्थानमें बँधनेवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी क्षपक अनिवृत्तिकरण जीवको कहा है, तथा इन दोनों वेदों का उदय अशी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके भी होता है, इसलिए शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान कहा है । मात्र श्राहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध अपूर्वकरण क्षपक होता है इसीलिए इन तीनों प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी पूर्वकरण क्षपक जीवको कहा है। यहाँ यह बात सबसे अधिक ध्यान देने योग्य है कि जिसके तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ता होती है वह पुरुषवेदके साथ ही क्षपक श्रेणीपर आरोहण करता है, क्योंकि जो जीव तीर्थकर होता है उसके जन्मसे एकमात्र पुरुषवेदका उदय होता इसलिए स्त्रीवेद में तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी उपशामक अपूर्व करण है । जीवको कहा है । नपुंसक वेद में क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्त्रीवेद के समान है यह तो स्पष्ट ही है । मात्र नपुंसक वेदका उदय एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर होता है इसलिए इसमें शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान कहा है । अपगतवेद में नौवें और दशवे गुणस्थान में बँधनेवाली प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है, क्योंकि यह संज्ञा नौवें गुणस्थान के श्रवेदभागसे प्रारम्भ होती है, इसलिए इसमें उक्त प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओघ के समान कहा है । १३०. क्रोध कषायवाले, मान कपायवाले और माया कपायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी नपुंसकवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें तीर्थंकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी ओधके समान है। तथा लोभ कमायवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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