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________________ अहष्ण-सामित्तपरूवणा ३०५ १३१. मदि० सुद० तिरिक्खोघं । विभंगे पंचरणा० - एवदंसणा० सादा०मिच्छ०- सोलसक० - पुरिस० - हस्स-रदि-भय-दुगुं ० -देवादि - पंचिंदि० - वेडव्वि ० - तेजा०क० समचदु० - वेडव्वि० अंगो ० -वरण ०४- देवाणु ० गुरु ०४ - पसत्थवि० -तस० ४-थिरादिछ० - णिमि० उच्चा० पंचंत० जह० हिदि० कस्स० ? अएण मणुस० सागारजा० सव्वविसु ० संजमाभिमुह० । श्रसादा० -अरदि-सोग- अथिर असुभ अजस० जह० ट्ठिदि० कस्स० ? अण्ण० चदुगदि० सत्थाणे सागार - जा० । इत्थि० एवं स ० - -पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थवि० दूर्भाग- दुस्सर - अरणादे० जह० हिदि० कस्स० ? अरण० चदुगदि ० तप्पा ओग्गविसुद्ध । श्रायुगाणं मण जोगिभंगो । तिरिक्खग० तिरिक्खाणुपु० - उज्जोव०-सीचा० जह० हिदि० कस्स ? रण० सत्तमा पुढवीए मिच्छादि ० सागार - जा० सव्वविसु सम्मत्ताभिमु० । गिरयगदि तिरिए जादि-रिया७० - मुहुम-अपज्ज० - साधार० जह० द्विदि० कस्स० ? अएण तिरिक्ख० मणुस ० तपारगविसु । मणुसग०-ओरालि०-ओरालि० अंगो० - वज्जरिस० – मरणुसागु० • विशेषार्थ - किसी भी कषायके उदयसे जीव क्षपक श्रेणीपर श्रारोहण करता है और उसके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होने में कोई बाधा नहीं आती, इसलिए चारों कषायों में तीर्थकर प्रकृतिके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रधके समान कहा है। शेष कथन सुगम है । १३२. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में अपनी सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । विभङ्गज्ञान में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैकियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर श्रादि छह, निर्माण उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर मनुष्य जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और संयमके श्रभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । असाता वेदनीय, श्ररति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर चार गतिका जीव जो स्वस्थानमें अवस्थित है और साकार जागृत है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर चार गतिका जीव जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । आयुकर्मकी चार प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनोयोगी जीवोंके समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सातवीं पृथिवीका नारकी जो मिथ्यादृष्टि है, साकार जागृत है, सर्व विशुद्ध है और सम्यक्त्वके श्रभिमुख है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकगति, तीन जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर तिर्यञ्च और मनुष्य जो तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला है वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्या ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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