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________________ उपकस्स-सामित्तपरूषणा २६६ ८६. आहार-आहारमि• पंचणा०-छदंसणा-असादावे०-चदुसंज-पुरिसअरदि-सोग-भय-दुगु-देवगदि-पंचिंदिय-वेविय-तेजा-क-समचदु०-वेवियअंगो०-वएण०४-[देवगइपाओग्गाणुपुन्वि-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-अथिर-असुभसुभग-सुस्सर-आदे०-अजस-णिमिण-तित्थय०-उच्चागो०-पंचंतरा० उक्क हिदि० कस्स० १ अण्ण. सागार-जा० उक० संकिलि । सादावे०-हस्स-रदि०-थिर-सुभजस० उक० हिदि. कस्स० १ अण्ण. सागार-जागार० तप्पाअोग्गसंकिलि०। देवाउ० उक्क हिदि० कस्स० । अएणद० पमत्तसंज. सागार-जा० तप्पाओग्गविसुद्ध। १०. कम्मइग० पंचणा-णवदंसणा-असादा-मिच्छत्त-सोलसक०-गवुस०अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खग-ओरालि-तेजा०-क०-हुडसं०-वएण०४-तिरि-- आयुबन्ध नहीं होता, इसलिए पूर्वोक्त १०४ प्रकृतियों से तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु इन दो आयुओंको कम कर देने पर बन्ध योग्य कुल प्रकृतियाँ १०२ शेष रहती हैं। इनका वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें बन्ध होता है । शेष सब विशेषता मूलमें कही ही है। ८९. आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोगमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चे न्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, प्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला अन्यतर जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? साकार जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाला अन्यतर प्रमत्तसंयत जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी है। विशेषार्थ-प्रमत्तसंयत जीवके ६३ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग छठे गुणस्थानमें ही होते हैं, इसलिए इनमें भी इन्हीं ६३ प्रकृतियोंका बन्ध होता है। उसमें भी इन दोनों योगों में किन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कौन है यह सब विशेषता मूलमें कही ही है। आहारक मिश्रकाययोगमें आयुबन्ध नहीं होता,यह बात गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ११८में कही है, पर यह बात वहाँ किस आधारसे कही गई है. यह स्पष्ट नहीं होता। 'महाबन्ध'मल ग्रन्थ है। इसमें तो सर्वत्र आहारकमिश्रकाययोगमें श्रायुबन्धका निर्देश किया है। यही कारण है कि यहाँ भी देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व दोनों योगवाले जीवोंके कहा है। ९०. कार्मणकाययोगमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, १. संकिलि० देवगदि० ४ उक० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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