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________________ ३८२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे त्थि अंतरं । ० जह० तो ०, उक्क० अांतकालं असं० । सेसाणं उक्क० णत्थि अंतरं । अणु० द्विदि० जह० एग०, उक० अंतो० । एवरि मणुसग०-मणु[० उच्चा० उक्क० हिंदि० पत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, संखेज्जा लोगा । सापु उक्क० अणु २३७. ओरालियका ० णिरय देवायु० - आहार ०२ - तित्थय ० उक० द्विदि० णत्थि अंतरं । तिरिक्ख - मणुसायु० उक्क० गत्थि अंतरं । अ० पगदिअंतरं । सेसारणं मणजोगिभंगो । २३८. ओरालियमिस्स० पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भय-दुगु ० ओरालि० -तेजा० क ० -वरण ०४ गु०४- उप० - णिमि० पंचंत० उक्क० द्विदि० णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० तो ० | देवगदि ०४ - तित्थय० धुविगाण भंगो । स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । विशेषार्थ - लब्ध्यपर्यातक मनुष्यके एकमात्र काययोग होता है । इसीसे काययोगमें मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध हो जाता है । जो मनुष्यायुका जघन्य स्थितिबन्ध करके और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य होकर पुनः मनुष्यायुका अजघन्य स्थितिबन्ध करता है उसके मनुष्यायुके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल उपलब्ध होता है और जो प्रारम्भ में मनुष्यायुका बन्ध करके अनन्तकालतक काययोगके साथ रहकर अन्तमें मनुष्यायुका बन्ध करता है उसके मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल उपलब्ध होता है । इसीसे मनुष्यायुके श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २३७. औदारिक काययोगी जीवोंमें नरकायु, देवायु, श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायु और मनुध्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर 'काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ - श्रदारिककाययोगमें तिर्यञ्चायु और मनुष्या युके प्रकृतिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्ष कह श्राये हैं वही यहाँ इन दोनों के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शेष कथन स्पष्ट ही है । २३८. श्रदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्क और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । शेष प्रकृ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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