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________________ उक्कस्सटिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३८३ सेसाणं उक्क० हिदि पत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो०। एवं अधापवत्तस्स । अथवा से काले पजत्ती जाहिदि ति सामित्तं दिजदि तदो धुविगाणं देवगदिपंचगस्स उक्क० अणु० पत्थि अंतरं । सेसाणं परियत्तमाणियाणं उक्क० रणत्थि अंतरं । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दो आयु० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २३६. वेउब्बिय०-आहार० मणजोगिभंगो। वेउब्विय-आहारमि० ओरालियमिस्सभंगो । कम्मइग० सव्वपगदीणं उक्क० अणु० णत्थि अंतरं ।। २४०. इत्थिवे. अोघं । पढमदंडओ सो चेव इत्थं वि। णवरि पलिदोवमसदपुधत्तं । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०--अणंताणुबंधि०४--इत्थि०-णवुस-तिरिक्खगदिएइंदि-पंचसंठा-पंचसंघ--तिरिक्खाणु --आदउज्जो -अप्पसत्थ-थावर--भगदुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० गाणावरणभंगो। अणु० जह• एग०, उक्क. तियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धको अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अधःप्रवृत्तके जानना चाहिए । अथवा तदनन्तर समयमें पर्याप्तिको ग्रहण करेगा ऐसे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामित्व प्राप्त होता है इसलिए ध्रुवबन्धवाली और देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष परिवर्तनशील प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। दो श्रायुओंका अन्तरकाल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध प्रकरणमें जो तदनन्तर समयमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त होगा वह सात कर्माके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी कह आये हैं और यहाँ उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध प्रकरणमें तद्योग्य संक्लेश परिणामोंके होने पर अथवा उत्कृष्ट संक्तश परिरपामोके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्धका स्वामी होता है यह कहा है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ अन्तर कालका निरूपण दो प्रकारसे किया है। फिर भी हर हालतमें किसी भी कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं प्राप्त होता इतना स्पष्ट है। कारण कि औदारिकमिश्रकाययोगका काल इतना अल्प होता है जिसमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणाम नहीं प्राप्त होते। २३९. वैक्रियिककाययोगी और आहारक काययोगी जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें औदारिमश्रकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी जीवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। २४०. स्त्रीवेदी जीवोंमें प्रोघके समान भङ्ग है। प्रथमदण्डक भी उसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि यहाँ सौ पल्य पृथक्त्व कहना चाहिए। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, पातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुखर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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