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________________ उक्कस्सअंतरपरूवणा १०३. पंचिंदिय-तस० तेसिं चेव पज्जत्ता सत्तएणं क. उक. जह• अंतो, उक्त सगहिदी । अणु० ओघं । आयु० ओघं । णवरि उक्कस्सं कायट्ठिदी।। १०४. पुढवि० आउ-तेउ०-वाउ०-वणप्फदि-पत्तेय-णियोद० सत्तएणं क. उक्क. जह• अंतो०, उक्क० असंखेजा लोगा। पत्तेगे कायट्ठिदी। अणु० । ओघं । आयु० उक्क० जह• बावीसं वस्ससहस्साणि सत्तवस्ससह तिरिण रादिंदियाणि तिगिण वस्ससह० दसवस्ससह अंतो० समयू, उक्क कायट्टिदी। अणु० जह अंतो०, उका. भवहिदी सादिरे । एवमेदेसिं बादराणं । णवरि सत्तएणं कम्माणं उत्कृष्ट अन्तर तथा आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर तथा इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल मूलमें कही हुई विधिसे ले आना चाहिए। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण कहा है सो इसका कारण यह है कि पूर्व पर्याय में जिस समय उत्कृष्ट आयुबन्ध हुआ,अगली पर्यायमें उसी समय उत्कृष्ट आयुबन्ध होनेपर एक समय कम अपनी-अपनी भवस्थिति प्रमाण जघन्य अन्तर-काल पा जाता है। शेष कथन सुगम है। १०३. पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आयु कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सागरोपमसहस्रप्रमाण, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण, प्रसकायिकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरप्रमाण और प्रसकायिकपर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति दो हजार सागर प्रमाण है । इस कायस्थितिको ध्यानमें रखकर यहाँ सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल व आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम है। १०४. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और निगोद जीवोंमें सात कमौके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंसंख्यात लोकप्रमाण है । प्रत्येक वनस्पतिकायकोंमें उत्कृष्ट अन्तर उनकी कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय कम बाईस हजार वर्ष, एक समय कम सात हजार वर्ष, एक समय कम तीन रात-दिन, एक समय कम तीन हजार वर्ष, दीमें एक समय कम दस हजार वर्ष और एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक भवस्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार इनके बादरोंमें अन्तरकाल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कर्मस्थितिप्रमाण है तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरोरमें सात 1. ध० पु. ७,१० १४२ व १५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001389
Book TitleMahabandho Part 2
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages494
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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