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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
४३०. पदे पदेण सव्वत्थोवा सादस्स चदुट्ठाणबंधगा जीवा । सादस्स चैव तद्वा बंधा जीवा संखेज्जगुणा । विट्ठाणबंध० संखेज्जगुणा । प्रसादस्स विद्वाणबंधगा जीवा संखेज्जगुणा । श्रसादस्स चदुद्वाणबंधगा० संखेज्जगुणा । असादस्स तिट्ठाणबंधगा जीवा विसेसाधिया । एवं जीवममुदाहारे ति समत्तमणियोगद्दाराणि ।
एवं मूलपगदिहिदिबंधो समत्तो
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स्थितिस्थानसे मण्डूकप्लुति न्याय के अनुसार छलाँग मारकर स्थिति बँधती है, वह अधिक स्थिति डायस्थिति है । श्राचार्य मलयगिरिने डायस्थितिके ये दो अर्थ किये हैं। उन्होंने लिखा है कि उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थिति के कम कर देनेपर जो स्थिति शेष रहती है, वह डायस्थिति है; क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिका बन्ध करके ही उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है। अन्य प्रकारसे नहीं ।
४३०. इस अर्धपदके अनुसार साताके चतुःस्थानिक बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे साताके ही त्रिस्थानिकबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे श्रसात के द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके चतुःस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे साताके त्रिस्थानबन्धक जीव विशेष अधिक हैं।
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इस प्रकार जीव समुदाहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
इस प्रकार मूल प्रकृतिस्थितिबन्ध समाप्त हुआ ।
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